वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 44
From जैनकोष
अप्रादुर्भाव: खलु रागादीणां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेप: ।।44꠰꠰
हिंसा और अहिंसाका―हिंसा का स्वरूप क्या है और अहिंसा का स्वरूप क्या है? उसका विश्लेषण इस गाथा में है । वास्तव में रागादिक भाव उत्पन्न न हों तो यह अहिंसा कहलाती है । अपने में राग द्वेष मोहभाव न जगे तो क्या स्थिति होगी? निर्विकार केवल ज्ञाताद्रष्टा की स्थिति बनेगी । वही तो अहिंसा है । रागादिक भाव न उत्पन्न हों उसको अहिंसा कहते हैं और रागादिक भाव उत्पन्न हो जाये तो उसे हिंसा कहते हैं । अब वह रागभाव चाहे सूक्ष्मपने से जगें तो भी हिंसा है । सूक्ष्मपने से जगने पर स्वरूप से तो च्युत ही हुआ । इस कारण वह हिंसा कहलायी । लोग कहते हैं कि हमने इसकी हिंसा कर दी, पर कोई किसी दूसरे की हिंसा नहीं करता, खुद की करता है । जैसे कोई जलते हुए कोयले का अंगार हाथ में लेकर किसी दूसरे को मारता है तो चाहे जिसे मारा है वह न जले, पर मारने वाला जरूर जल जाता है । तो अपने चैतन्यस्वरूप का घात करना इसका नाम हिंसा है । यह जिनेंद्रभगवान के आगम का संक्षेप है । इस लक्षण से शुद्धोपयोग का परिणाम जगा वहाँ भी रागभाव मिला है तो वह भी हिंसा हो गई । एक निर्विकल्प अंतस्तत्त्व का उपयोग है सो तो अहिंसा है और बाकी जितने भी विकृतपरिणाम हें वे सब हिंसा कहलाते हैं ।