पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 97: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
छेदनभेदन मारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि ।
तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तंते ꠰꠰97꠰꠰
सावद्यवचन का विवेचन―जो छेदन, भेदन, मारने, सोचने, व्यापार, चुगली आदिक के वचन हैं वे सब सावद्य वचन हैं, क्योंकि उन वचनों से प्राणी में बंध आदिक पापों की प्रवृत्ति चलती है । जैसा कहा कि इस पशु का अमुक अंग छेदो । पशुवों को वश करते हैं, ऊंटों को नाथ डालते हैं, बैलों को नाथ डालते हैं और तरह कान छेदना, पूछ काटना आदिक जो उपदेश हैं उससे प्राणिवध ही तो हुआ, अपना परिणाम भी कलुषित हुआ, अज्ञान भरा हुआ । मान लो संक्लेश नहीं है मौज मान लिया, मौज मानकर भी तो अज्ञानवश ही किया । दूसरों का छेदन करना, वध करना, पीटना आदिक ये सब वचन पाप से भरे हुये हैं, सावद्य होते हैं और सावद्य व्यापार की बात कहना जिसमें जीवहिंसा होती है और स्वयं को भी बहुत संक्लेश करना होता है ये सब वचन भी सावद्य वचन हैं । चौर्य-वचन तो पाप से भरा ही होता है । मनुष्य को धन प्राणों की तरह है और कोई उस धन की चोरी करने का वचन बोले, कोई चोरी कर ले जाये तो उस मनुष्य का कितना प्राण पीड़ा जाता है । इस प्रकार के वचन सावद्य वचन हैं । चतुर्थ असत्यवचन में तीसरा प्रकार है अप्रियता का । अब उसका वर्णन करते हैं ।