वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 98
From जैनकोष
अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् ।
यदपरमपि तापकरं परस्थ तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ꠰꠰98꠰꠰
चतुर्थ असत्यवचन के अंतर्गत अप्रियवचन का विवेचन―जो वचन दूसरे से अप्रीत उत्पन्न करे, भय उत्पन्न करे, खेद कराये, बैर बताये, शोक झगड़ा कराये और प्रकार के भी संताप कराये वे सब वचन अप्रिय समझना और अप्रिय वचन असत्य कहे जाते हैं । मनुष्यों में कषायों का आवेश नाना प्रकार का है । उस आवेश में आकर अपने को महान् समझकर, दूसरे को अपने से तुच्छ जानकर जिस ढंग से वचनों की प्रवृत्ति होती है वे वचन दूसरों को दुखदायी होते हैं । सदैव दूसरों का आदर बड़े, ऐसे वचनों का पालन किया जाये तो यह खुद भी बड़े चैन में रहता है और वातावरण भी बड़ा शांत रहता है । किसी को अपमानजनक बात न कहना चाहिए । यहाँ कौन छोटा है और कौन बड़ा है? यह तो संसार है, आज जो बढ़ा चढ़ा है उसकी कल की स्थिति का पता नहीं है । इसलिये इन सांसारिक समागमों में ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता कि जो स्थिति पायी है, जो समागम मिला है वह मेरा है, मेरे से कभी कुछ नहीं बिछुड़ सकता, परिवर्तित नहीं हो सकता । अरे जब बडे-बड़े राजा भी मरकर कीट बन गये हैं, कुछ देव मरकर एकेंद्रिय तक हो जाते हैं, कुछ देव मरकर पशु पक्षी तक बन जाते हैं तो और क्या उदाहरण दिया जाये इसको सिद्ध करने के लिए कि संसार में बड़े-बड़े ओहदों को पाकर भी उनके बने रहने का विश्वास नहीं है । आज जो छोटा है वह कल महान् बन सकता है, आज जो महान् है वह कल तुच्छ बन सकता है और फिर छोटे बड़े सभी एक दूसरे के काम आ सकते हैं । मालिक सोचता है कि मेरे कारखाने में ये हजारों मजदूर काम करते हैं उनकी आजीविका मैं लगाये हूँ, पर वे मजदूर भी तो उस मालिक की आजीविका लगाये हैं । मजदूरों की कृपा से ही वह मालिक मौज उड़ा रहा है । तो यह एकांत कहना असत्य है कि मैं इनको पालता हूँ । तो यहाँ किसे नीच समझा जाये और किसे ऊंच समझा जाये? बच्चों की कहानी में एक कहानी आयी है कि एक चूहा सोते हुए सिंह के ऊपर उछलता-उछलता आ गया । उससे उस सिंह को कुछ क्लेश हुआ । सिंह ने उस चूहे को अपने पंजे से पकड़ लिया । तो चूहा कहता कि हे वनराज ! मुझे मत मारो, देखो मैं भी तुम्हारे किसी काम आऊंगा । सिंह सोचता है कि यह चूहा मेरे काम क्या आयेगा? पर उसे तुच्छ समझकर यों ही छोड़ दिया । कुछ दिन बाद में वही सिंह एक शिकारी के जाल में फंस गया । ज्यों-ज्यों वह निकलने की कोशिश करता गया त्यों-त्यों और भी जाल में फंसता गया । जाल में जकड़ा हुआ सिंह को देखकर वही चूहा पास में आया और बोलता है कि हे वनराज ! तुम दु:खी मत हो, हम तुम्हारे प्राण बचावेंगे । क्या किया चूहे ने कि जाल काटना शुरू कर दिया । कुछ जाल कट जाने पर वहाँ से सिंह निकल गया । तो कभी चूहा भी सिंह के काम आता है । यहाँ किसका सम्मान किया जाये और किसका असम्मान किया जाये?
अप्रिय वचन बोलने का अनौचित्य―अप्रिय वचन बोलना मनुष्य को हितकारी नहीं है । ये अप्रियवचन भी असत्य वचन हैं । क्योंकि दूसरों को डराना चाहते हो, उससे अपने आत्मा को क्या लाभ होगा? जो दूसरे को भय उत्पन्न कराना चाहता है वह पहिले स्वयं ही एक कोई शंका भय सदेह को उत्पन्न करता है, बाद में कोई दूसरा भयभीत होता है तो उस प्रकरण में यह भी किसी विपत्ति में फंसता है । जो वचन भय उत्पन्न करें वे असत्य वचन कहे गये हैं । सत्य वचन वे हैं जो किसी आत्मा का उपकार करें । जो खेद बढ़ाये ऐसे वचन भी असत्य वचन हैं । दुःखी पुरुष जिस कारण से दुःखी होते हैं उसके कारण को दुहरा करके कहें तो खेद ही पड़ता है । जब कभी इष्टवियोग हो जाये और उसके रिश्तेदार समझाने के लिये घर आते हैं तो वे रिश्तेदार उस मरे हुए के गुण और गा गाकर कुटुंबीजनों का खेद बढ़ाते हैं । बड़ा अच्छा था, सबकी रखवाली करता था, खुद के खाने पीने की कुछ फिकर न थी, घर वालों की बड़ी पूछ करता था । अरे वे घर वाले इसी बात से तो दुःखी हैं और उनको ये इस बात की याद दिलाकर उसका दुःख बढ़ा रहे हैं । चाहे बात ठीक कह रहे मगर खेद बढ़ाने वाले वचन हैं । वे योग्य वचन नहीं हैं । जो वचन बैर विरोध, शोक, झगड़ा आदि बढ़ावे । वे असत्य वचन हैं । देखिये जैसे यह आरंभ में बताया जा रहा है कि वचन किस प्रकार बोलना चाहिए तो ऐसे वचनों का प्रयोग यदि होने लगे तो कोई असंगठन की बात ही न रहे किसी प्रकार का विरोध हो ही नहीं सकता । सभी अपने-अपने वचनों की संभाल कर ले, एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखें, घृणा से नहीं । चाहे कोई कैसा ही विचार रखता हो, आखिर सब बुद्धिमान हैं, सबके अंदर समझ है, धर्म का प्रेम है, सभी जैन शासन रुचि वाले हैं, फिर परस्पर में क्यों बैर विरोध हो? सभी अपने-अपने कर्तव्य की संभाल लें तो शांति मिल सकती है । तीर्थकर प्रकृति बंध की भावनाओं में प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है । जिस भावना में भावक पुरुष संसार के समस्त जीवों का कल्याण चाहता है । अरे जरा अपनी ही दृष्टि तो संभालना है । अपने आपके स्वरूप का जरा निखारने का यत्न ही तो करना है, सारे क्लेश मिट जाते हैं । क्यों न ये सब जीव अपने स्वरूप की दृष्टि कर लें? इस प्रकार को भावना होती है तो तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है । तो आप सोचिये कि महापुरुषों का यह एक गंभीरतापूर्ण बर्ताव है कि वे सभी जीवों को सुखी निहारना चाहते हैं । तो सबका यही कर्तव्य कि सभी जीवों को सुखी निखारने की भावना करें । अब कोई अपने पड़ौस के अपने गोष्ठी के लोगों को सुखी रखने की भावना तो न करे और वे मुनि सुखी हों, वे ज्ञानी सुखी हों, वे गुरु सुखी हों यों रटन लगाये तो आप बताओ कितनी हंसीपूर्ण उसकी प्रवृत्ति है । एक अपने आपको अशांत करने वाली है झूठ बात । यों समझिये कि उसके चित्त में दया का बर्ताव नहीं है । होता दया का बर्ताव तो जिनका अपने से घनिष्ट संबंध है उनपर ही क्यों पहिले कृपा करता? तो जो बात बैर विरोध बढ़ाये, शोक कलह मचाये ऐसे वचन असत्यवचन ही कहे जाते हैं ।
अप्रिय वचन न बोलने की शिक्षा―देखो अप्रिय वचन हैं उन वचनों को पशु भी नहीं सह सकते । यद्यपि पशु उन वचनों का मनुष्यों की भांति पूरा अर्थ नहीं समझ पाते, किंतु इतना जरूर जान जाते हैं कि यह हमारा अपकार कर रहा या है हम को अपना रहा है । जब कुत्ते को पुचकार बुलाते हैं तो पूछ हिलाकर बड़ी विनयपूर्वक वह पास में आता है और जब कोई गाली भरा बुरा वचन बोलकर कहता है तो वह कुत्ता अपना अपमान समझकर दूर भाग जाता है । तो चाहे मनुष्यों की भांति शब्द का अर्थ न जान सके, मगर वे समझते हैं तभी तो गाली भरा बुरा वचन कहने पर वे दांत निकालते हैं, गुर्राते हैं और यहाँ तक कि कोई-कोई पशु उस असम्मान से अच्छा यह समझते हैं कि इससे तो मेरा अंत हो जाये तो अच्छा है । भला बतलाओ कि जो वचन पशुओं को भी बुरे लग सकते हैं जिससे हैरान होकर वे भी अपने प्राणघात हो जाना उचित मानते हैं, फिर जो वचन मनुष्यों के प्रति बोले जाये तो क्या मर्म को भेदते नहीं हैं वचन मर्मभेदी नहीं होना चाहिये । दूसरे का महत्त्व आंकते हुए वचन होना चाहिये । अरे निगोद से निकलकर और भावों से निकलकर आज मनुष्य हुए हैं, श्रावक कुल में पैदा हुए हैं, जैनधर्म के प्रति रुचि है, कुछ तो गुण है ना । क्यों नहीं वात्सल्य उमड़ता है? यदि किसी के प्रति वात्सल्य हो तो वात्सल्य उमड़ने वाले के चित्त में दोषों की पकड़ नहीं रहती ꠰ दृष्टांत के लिए मां और पुत्र का वात्सल्य ले लीजिये । मां और पुत्र का शुद्ध निष्कपट वात्सल्य रहता है । पुत्र में चाहे कोई दोष भी हों पर मां के चित्त में वही कृपा, वही करुणा, वही उन्नति की आकांक्षा बनी रहती है, तो समझिये कि साधर्मी बंधुओं में जबकि सबका उद्देश्य है―जैन शासन की शरण लेकर अपना उद्धार करना तो फिर क्यों नहीं एक दूसरे के प्रति वात्सल्यभाव उमड़ता है? ये अप्रिय वचन, असम्मान भरे वचन बोलना योग्य नहीं है । अप्रिय वचन बोलना, असम्मान भरे वचन बोलना यह जीवन का एक कलंक है । ऐसे बोलने वाले न स्वयं सुखी रह सकते और न कोई दूसरा सुखी रह सकता है ।