मोक्षपाहुड - गाथा 104: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी ।
ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।104।।
पंच परमेष्ठियों का आत्मचेष्टास्वरूप―जगत् में बड़ा कौन? परम इष्ट कौन? जो आत्मा अपना विकास कर रहे हैं और विकास कर चुके हैं वे आत्मा बड़े पूज्य कहलाते हैं । सो वे तीन दशाओं में मिलेंगे―(1) साधु (2) अरहंत और (3) सिद्ध । जो निर्ग्रंथ दिगंबर होकर केवल आत्मतत्त्व की साधना में ही रहते हैं वे कहलाते हैं साधु । जो आत्मा की साधना करे सो साधु । और ये ही साधु बन निर्विकल्प समाधि के बल से जब घातिया कर्मों से दूर हो जाते हैं, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंतआनंद प्रकट होता है तो वे कहलाते हैं अरहंत, और ये ही अरहंत जब चार अघातियाकर्मों से, इस देह के फंदे से दूर हो जाते हैं, केवल आत्मा-ही-आत्मा ज्योति रह जाती है वे कहलाते हैं सिद्ध । साधु हुए बिना कोई अरहंत नहीं बन सकता, अरहंत हुए बिना कोई सिद्ध नहीं हो सकता । साधु के ही तीन रूप हैं―(1) आचार्य (2) उपाध्याय और (3) मुनि । ये तीनों ही साधु कहलाते हैं । केवल थोड़ा योगवृत्ति कहो या साधुवों की अनुकंपा कहो इस कारण से जो कुछ प्रवृत्तियों से विशिष्ट हैं वे आचार्य उपाध्याय कहलाते हैं, मुनिसंघ के नायक आचार्य, मुनिवर्ग को पढ़ाने वाले उपाध्याय । हैं ये तीनों साधु, तो तीन कहो या पंचपरमेष्ठी कहो, इनका स्वरूप क्या है? यह चीज क्या है? आत्मा की चेष्टा, आत्मा का ही वह विकास, वह स्वरूप, यह ही परमेष्ठी कहलाता है । तो क्या मैं आत्मा नहीं हूँ और मुझमें क्या यह स्वरूप नहीं है? स्वरूपजाति पर ध्यान तो दें । यह मैं आत्मा कोई स्थूल नहीं हूँ, पुद्गल पिंड की तरह कोई खंड या पिंडरूप नहीं हूँ, भले ही देह में रहता हूँ मगर आकाश की तरह अमूर्त हूँ । कैसा विलक्षण है यह परमार्थ पदार्थ, यह जीवतत्त्व । एक-एक न्यारा-न्यारा करके अनंत जीव हैं, और उनका आकार, प्रदेश-विस्तार न्यारा-न्यारा भिन्न-भिन्न रूप है और गुणों का वह पिंड है । गुणों के वहाँ परिणमन हैं, कैसा अद्भुत यह परमात्मस्वरूप है, उसका जो विकास है वही परमेष्ठी कहलाता है । तो यह सब स्वरूप उस आत्मा में जो चेष्टा हुई है वही तो है । पांचों ही आत्मा में ठहर रहे हैं ।
परमात्मा व आत्मा की स्वरूपसमता―आत्मा मैं भी हूँ, आत्मा प्रभु भी हैं, आत्मद्रव्य के नाते हम और प्रभु एक हैं । जो प्रभु में प्रभुता है वह मुझ में भी है । प्रभु निरावरण हो गए इसलिए उनकी प्रभुता स्पष्ट है । यहाँ आवरण से बंधे हुए हैं । हमारा परमैश्वर्य प्रकट नहीं है मगर वस्तु एक समान है, जैसे कुछ गेहूं की बालों पर बरसात हो जाने से पानी पड़ गया, कुछ बाल बच गए । उन गेहुँवों को मशीन से निकालने के बाद कोई गेहूं काले रंग के हैं, कोई गेहूं बिल्कुल अपने सही रूप हैं, और उनमें भेद भी बहुत दिखते हैं, उनके मूल्य में भी फर्क पड़ता है, स्वाद में भी अंतर आता है, मगर भीतर जाति तो देखिये, दोनों की जाति एक है । जो आज खराब दाना है वही जब बोया जायेगा तो सही दानों को ही उत्पन्न करेगा । प्रभु की जाति और हमारी जाति में रंच भी अंतर नहीं, वही ऐश्वर्य मुझमें है जो प्रभु में है । जिस उपाय से प्रभु ने अपना वह ऐश्वर्य प्रकट किया उसी उपाय से हमारा भी ऐश्वर्य प्रकट होगा ।
परमात्मस्वरूप का सुपरिचयकर उसमें मग्न होने का पौरुष करने का अनुरोध―भैया ! एक साहस चाहिए । भव-भव में ठोकरें खायी, अहंकार-ममकार के कारण से भव-भव में त्रस्त रहे और जो आज भव पाया उसमें भी ठोकरें खाते जा रहे हैं, पर एक साहस नहीं बनाया जा रहा कि इस भव में एक बार भी तो समस्त परद्रव्यों से अत्यंत निराला केवल स्वरूपमात्र मैं अपने आपको निरखूं । और यह साहस नहीं बन पा रहा, उसका कारण यह है कि आत्मतत्त्व का परिचय दृढ़ नहीं है और उसकी भावना नहीं है, उसका अभ्यास नहीं है, पर जिन महापुरुषों को, परमेष्ठियों को हम पूजते हैं उनकी परिस्थिति देखी जाये तो यह मिलता था कि वे हैं क्या? वह एक अपने आत्मा की ऐसी परिणति है । तो आत्मा मैं हूँ और वही परिणति मुझमें हो सकती है, वही योग्यता है, इस कारण से मेरा वास्तव में शरण मेरा आत्मा ही है । जिसको हमने अपना शरण माना, प्रभु को, साधु को, तो वह निकला क्या? आत्मा का विकास । तो वस्तुत: शरण क्या रहा? आत्मविकास? पर दूसरे का आत्मविकास नहीं, स्वयं का आत्मविकास । तो वास्तव में शरण है तो मेरा यह आत्मस्वरूप ही शरण है । णमोकार मंत्र के बाद चतारिदंडक पढ़ा जाता है, जिसमें चार मंगल, चार लोकोत्तम और चार शरण कहे हैं । वे चार हैं अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म । धर्म के ही प्रताप से साधु पूज्य हैं, धर्म के ही कारण अरहंत सिद्ध पूज्य हैं । तो मुख्यता रही धर्म की, आत्मस्वभाव की । तो हर दृष्टियों से परख लो, यही मिलेगा अंत में कि मेरा आत्मा ही वास्तविक शरण है । मैं आत्मा को छोड़कर भटकता हूँ दूर-दूर तो सिवाय क्लेश के कुछ हाथ नहीं आता और सबको छोड़कर केवल आत्मा में ही रमता हूँ तो वहाँ अद्भुत अलौकिक आनंद प्राप्त होता है । उस आनंद के अनुभव में ही हमें परमात्मस्वरूप के दर्शन हो जाते, यह मोक्षपाहुड़ ग्रंथ हैं । यह अब करीब पूर्ण होने वाला है । यह आखिरी की 104 नंबर की गाथा है । इसमें मोक्ष का मूल भी बताया और साथ ही एक मानो अंतिम मंगलाचरण जैसा हो रहा हो, यह भी एक रूप बना । निष्कर्ष यह निकालें कि हम परमेष्ठियों का ध्यान धरते हैं तो वह है आत्मा की ही एक चेष्टा । आत्मा मैं भी हूँ, मेरे में भी वही स्वरूप है । तो अपने आत्मा में परमात्मस्वरूप को निरखकर मैं अपने शरण का आलंबन लूं ।