वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 103
From जैनकोष
णविएहिं ज णविज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं ।
थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पिं तं मुणह ।꠰103।।
अनेक प्राणियों द्वारा नमस्कार किये गये इंद्रादि द्वारा नमस्करणीय देहस्थ परमात्मतत्त्व की नमस्करणीयता―इस लोक में ये जीव किसको नमस्कार किया करते हैं? किसका आदर किया करते हैं? जो वैभव में बड़ा हो, जो लौकिक ऐश्वर्य से संपन्न हो, जिसके अधिकार में सत्ता हो, ऐसे राजा, चक्रवर्ती, इंद्र तक को लोग नमस्कार किया करते हैं, पर यह तो देखिये कि ऐसे जो बड़े पुरुष हैं चक्रवर्ती इंद्रादिक ये प्राय: ज्ञानी होते हैं और इनको वैभव में प्रीति नहीं होती । जो लौकिक ऐश्वर्य में सर्वाधिक हो जाये उसे वैभव में ममता नहीं रहती, जिसको थोड़ा मिला है और अपने से बड़ा दूसरों को देखते हैं उनको वैभव में तृष्णा होती है । तो वे इंद्र हैं, चक्रवर्ती हैं, अपने समय में पूरे वैभव से संपन्न हैं, ऐसे ये महान पुरुष इंद्र, ये किसको नमस्कार किया करते, यह भी तो विचारना चाहिए । ये नमस्कार किया करते हैं अपने देह में रहने वाले सहज परमात्मस्वरूप को । तो भले ही संसारी प्राणी, ये मोही जीव इस लोक में बड़े कहलाने वाले चक्रवर्ती इंद्रादिक को नमे, पर ऐसे बड़े अन्य जीवों के द्वारा नमे गए ये अपने देह में रहने वाले उस सहज परमात्मस्वरूप को नमस्कार करते हैं । अब विवेक से सोचा जाये कि बड़ा कौन हुआ? जिसको हम बड़ा मानते हैं या वह जिसको बड़ा मानता हो । बड़ा तो वास्तव में वह है जिसको बड़े भी बड़ा मानते हैं, पर मोह में इस ओर कोई ध्यान नहीं देता । हम जिसको बड़ा मान रहे वह किसे बड़ा मान रहा, यह रूढ़ि नीति से तो धर्म के प्रसंग में भी लोग किया करते हैं । गुजरात में श्रीमद् राजचंद्रजी हुए, वह महापुरुष थे, उन्हें प्रभु में बड़ी निश्छल भक्ति थी, आत्मतत्त्व के आराधक थे, उनके भक्त वहाँ बहुत लोग हैं । और कुछ समझदार हैं,कुछ और उनके गुणों पर अनुरागी होने से सब उनको ही मानते हैं तो सब लोगों ने माना उस महान आत्मा को, पर महान आत्मा ने उसने जिनवाणी, वीरवाणी, जिनेंद्र प्रभु, इनका ही ध्यान किया और इन्होंने आगम से ही कुछ वाणी लिखी । तो अनेक भक्त ऐसे भी हैं कि जिनका ध्यान श्रीमद᳭राजचंद्रजी करते थे, उनके ध्यान के लिए बुद्धि नहीं जगती । और, किन्हीं-किन्हीं को तो यह भी नहीं पता है कि थे किसका ध्यान किया करते थे । संसार में भी अनेक पुरुष ऐसे पाये जाते कि लोक में जो बड़े हैं उन तक ध्यान है कि ये बड़े हैं, पर उसका ध्यान नहीं है कि ये बड़े भी किस स्वरूप का ध्यान किया करते हैं । तो वास्तव में नमस्कार के योग्य उत्कृष्ट पदार्थ तो अभी देहस्थ आत्मा में शाश्वत रहने वाला परमार्थस्वरूप है जिसको यहाँ के पूजे गए, नमस्कार किए गए इंद्रचक्रवर्ती भी ध्यान किया करते हैं । वह परमात्मस्वरूप कहां है? खुद के इस देह में विराजमान जो आत्मतत्त्व है उसमें ही परमात्मस्वरूप है ।
ज्ञान में ज्ञानाभिमुख ज्ञान के वर्तने से परमात्मदर्शन के आनंद का लाभ―इस परमात्मस्वरूप का दर्शन घबराने से नहीं होता, उलायत से नहीं होता, इंद्रिय के प्रयोग से नहीं होता, किंतु ज्ञानस्वरूप इस आत्मा की समतापूर्वक ज्ञान द्वारा आराधना होने से, अभेद आराधना होने से शांतिपूर्वक जो ज्ञान में ज्ञानस्वरूप समाता है उस काल में परमात्मस्वरूप का अनुभव बनता है । वही दर्शन कहलाता है । परमात्मा का दर्शन आंखों से नहीं होता किंतु अपने ज्ञान में ही अविकार ज्ञानस्वरूप अनुभव में आ जाये तो यही कहलाता है परमात्मस्वरूप का दर्शन । इस दर्शन के साथ ही चूंकि लोगों को सहज आनंद भी आया, उस आनंद के अनुभव के कारण उस परमात्मस्वरूप की याद रहा करती है । किसी चीज को जान लिया तो केवल जानने से ही याद रहे उसकी अपेक्षा जानने के साथ आनंद पाने पर उसकी याद रहना दृढ़ होता है । तो संसार के लोग जिनको नमस्कार करते हैं वे भी जिसे नमस्कार करें वह परमात्मस्वरूप नमस्कार के योग्य है । सो हे भव्यजन ! हे आत्मन् ! तुम भी अपने देह में रहने वाले आत्मा में स्वभावस्वरूप जो परमात्मतत्त्व बसा है उसका ज्ञान करो, उसका अनुभव करो । जीव को साथी, शरण केवल एक यह ही परमात्मस्वरूप का अनुभव है ।
अनेक प्राणियों द्वारा स्तुत किये गये मुनींद्रों दारा स्तुत्य परमात्मस्वरूप की संस्तव्यता―जगत् के जितने भी स्तुति किए जाने वाले महापुरुष हैं, जिनकी लोग स्तुति करते हैं वे कौन हैं? जैसे मुनिराज, तीर्थकर जैसे उच्च महापुरुष । वे किसकी स्तुति किया करते हैं, यह भी तो ध्यान में लाना चाहिए । वे स्तुति किया करते हैं देह में विराजमान परमात्मस्वरूप की । जैसे उनके देह में परमात्मस्वरूप विराजमान है ऐसे ही अपने देह में परमात्मस्वरूप विराजमान है । देह में हैं आत्मा, स्वरूप वाला है, द्रव्य वाला है मगर इस प्रकार का आज बंधन है । देह में है आत्मा और आत्मा में है परमात्मस्वरूप । जैसे दूध में घी किसी को नहीं दिखता, हाथ और अंगुली लगाने से भी कहीं घी नहीं आ जाता मगर घी निकलता है दूध से । तो जो घी निकला वह कहीं बाहर से नहीं आया, किंतु दूध में ही घी के अंशों का जो परिणाम है, वही निकलकर आया है । उसका उपाय किया गया, बिलोया गया या दही जमाकर बिलोया गया, तपाया गया, मलाई से, खोवा से निकाला गया । प्रयोग होने पर घी आया कहां से? उस दूध में से । देखने से दिखता नहीं, ऐसे ही सबका जीव, सबका आत्मा, पता कुछ पड़ता नही कि यहाँ भगवान का स्वरूप है, आंखों दिखता नही, मगर परमात्मस्वरूप इस आत्मा में है । जो भी परमात्मा हुए हैं सो उनका हुआ क्या? जो परमात्मस्वरूप था वही निवारण होकर प्रकट हो गया है, कुछ नई चीज नही निकली, कुछ नये साधन नहीं लिए गए, कुछ बाहरी पुद्गल द्रव्यों की मदद से नही बने किंतु खुद ज्ञानस्वरूप आत्मा ने इस ज्ञानस्वरूप आत्मा में इस ज्ञानस्वरूप साधना के द्वारा मथा अपने आपको और उस ज्ञान में वह ज्ञानस्वरूप का अनुभव बना । यही है परमात्मस्वरूप का दर्शन । सो जिन-जिन महान पुरुषों का लोग स्तवन किया करते हैं वे किसका स्तवन करते हैं? वास्तव में तो वे स्तवन के योग्य हैं । तीर्थंकरों ने भी मुनि अवस्था में, गृहस्थावस्था में देह में विराजमान परमात्मस्वरूप की आराधना की थी । इस उपयोग को बाहर में कहीं भटकाये चले जावो, सभी जगह से यह हैरान होकर यह लौट आता है, कहीं भी बाहर में यह उपयोग टिकता नही है, दुःखी भी रहता है । तो उपयोग वहाँ टिकाये कि जहाँ से हटने का सवाल नही, फिर कोई प्रकृति नहीं जो ध्यान से हटा सके । एक अपनी ही कमजोरी से हम न टिक पायें तो यह अपनी ही गल्ती है, मगर दूसरा कोई द्रव्य इस उपयोग को आत्मा से भंग नहीं कर सकता । तो जो स्थिर तत्त्व है वह अपना आत्मस्वरूप है, उसका ध्यान ज्ञायकस्वरूपमात्र विचारकर करना चाहिए । मैं ज्ञानस्वरूपमात्र हूँ, मैं आकाशवत् अमूर्त हूँ, निर्लेप हूँ, इसमें परद्रव्य के संयोग का क्या काम? इसमें झूठ का क्या काम? जब यह अपने में नही रह पाता तब यह क्षुब्ध होता है ꠰ तो अपने देह में विराजमान उस परमात्मस्वरूप का स्तवन करें जिसकी स्तुति यहाँ के बड़े-बड़े पुरुष करते हैं, जिनको अनेक लोग स्तवन करने वाले हैं ।
अनेक प्राणियों द्वारा ध्यान किये गये साधुजनों द्वारा ध्यातव्य परमात्मस्वरूप की ध्यातव्यता―ध्यान की भी बात देखिये―यहाँं पर लोग जिन पुरुषों का ध्यान किया करते हैं । किसी को किसी साधु पर ध्यान है, किसी को किसी उपकारी पर ध्यान है, किसी को किसी धनिक पर ध्यान है, जिसका ध्यान ये जगत् के जीव किया करते हैं ज्ञातव्य तत्त्व तो वह है । किसका ध्यान करते हैं वे मुनिजन, वे महापुरुष? देह में विराजमान परमात्मस्वरूप का । जैसे जल में रहने वाली मछली प्यासी रहे तो यह बड़े आश्चर्य की बात है ऐसे ही ज्ञानानंद संपन्न स्वयं यह आत्मा दुःखी रहे तो यह बड़े आश्चर्य की बात है । क्यों दु:खी रहा जाये? समस्त बाह्य पदार्थों से मोह-ममता हटायी जाये और अविकार आत्मस्वरूप में ही उपयोग को टिकाया जाये, वहाँ फिर क्षोभ का कोई कारण नहीं । इस गाथा में यह बतला रहे कि देह में विराजमान उस परमात्मस्वरूप का ध्यान धरो जिसका ध्यान बड़े-बड़े मुनिजन करते हैं, जिसका स्तवन बड़े-बड़े महापुरुष करते हैं, जिसका नमस्कार बड़े-बड़े ऊ̐चे लोग करते हैं, वह स्वरूप अपने आपमें विराजमान है । इस आत्मस्वरूप की ओर से देखें तो यहाँ कोई छोटा और कोई बड़ा नहीं है । सर्व एकसमान हैं । सभी के पास वह अमूर्त तत्त्व मौजूद है, बस भूलते हैं, उपयोग नहीं करते हैं, उसका फर्क है, लेकिन वह अमूर्त तत्त्व सर्व जीवों के अंदर एकसमान स्वरूपत: विराजमान है, ऐसे देह में रहने वाले अंतस्तत्त्व का ध्यान करना चाहिए ।