मोक्षपाहुड - गाथा 16: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
परदव्वादो दुग्गइ सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ ।
इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरह इयरम्मि ।।16।।
परद्रव्यरत की दुर्गति और स्वद्रव्यरत की सुगति―परद्रव्यों के प्रसंग में दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के उपयोग से सद्गति होती है । ऐसा जानकर स्वद्रव्य में तो रति कीजिये और परद्रव्य में विरति कीजिये । परद्रव्य से दुर्गति नहीं होती किंतु परद्रव्य के बारे में अपना उपयोग लगाये, मोह करे, प्रतीति बनाये तो उसको दुर्गति होती है । और स्वद्रव्य में उपयोग लगाये तो उससे भवितव्य अच्छा होता है । आत्मा में जितने विकारभाव जगते हैं वे सब किसी न किसी परद्रव्य का आश्रय करके जगते हैं । कर्मविपाक होने पर जगते हैं, किंतु निर्मल पर्याय जो उत्पन्न होती है उसे किसी परद्रव्य का सहारा नहीं लेना पड़ता किंतु निज शाश्वत् चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व के आश्रय से ही निर्मल पर्यायें बनती हैं ? यहाँ तो यह नियम बन गया कि स्वद्रव्य की, आत्मा की अच्छी दशा बनती है और परद्रव्य से दुर्गति नहीं बनती किंतु परद्रव्य में मोह करने से दुर्गति बनती है । तो आश्रय तो रहा पर द्रव्य, इस कारण पर द्रव्य का राग छोड़ना चाहिए । जितने भी बंधन होते हैं वे किसी परद्रव्य का ख्याल होने से बंधन होता है । इस कारण परद्रव्य नोकर्म हैं, आश्रयभूत हैं । उसका उपयोग न करें और अपने स्वद्रव्य का उपयोग किया जाये तो बंधन दूर हो जायेगा । तब स्व को, निज को निज पर को पर जान, यथार्थतया जो जैसा निज हैं उसको जान लें कि यह मैं हूँ । जैसा परद्रव्य हैं उसे जान ले कि यह मैं हूँ । जैसा परद्रव्य है उसे जान ले कि यह पर है, फिर दुःख का नहिं लेश निदान ।
अंतस्तत्त्व का परिचयन―निज क्या है ? मिथ्यात्व में तो लोग अपने बच्चे को भी कह देते कि यह निज है, यह सगा है, पर सगा शब्द संस्कृत का शब्द है । स्वक: याने स्व बना लेना, आपा ही मान लेना, तो मोह में तो यह पुत्रादिक को भी जो अत्यंत पृथक् जीव हैं, भिन्न क्षेत्र में हैं, उनको भी आपा मान लेते । पर वास्तव में आपा क्या है ? सो जरा बाहर से समझ करके भीतर की ओर आयें । जितने भी ये बाह्य अचेतनपरिग्रह हैं धन वैभव, मकान, महल आदिक ये सब तो प्रकट भिन्न हैं ही । वे तो निज नहीं हैं । अब उससे और कुछ पास आयें तो कुटुंब, पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक ये भी निज नहीं हैं । ये भी भिन्न जीव हैं । अपना परिणमन कर रहे हैं, उनसे मेरा कुछ संबंध नहीं । अब और निकट आये तो यह देह है जिसमें यह निरंतर अभी बंधा हुआ है । यह देह भी निज नहीं है, यह भी अत्यंत भिन्न परद्रव्य है, पौद्गलिक है ꠰ आत्मा चेतन है ꠰ यह देह भी निज नहीं है, और अंदर चलें तो वे कर्म जो सूक्ष्म पुद्गल हैं, जिनका निरंतर बंध रहता है संसारदशा में । जिसे कहते हैं मरना, मरने पर देह तो छूट जाता है और जीव के यहाँ से निकलने पर जीव के साथ वे कर्म जरूर जाते हैं जिनका कि बंध पड़ा हुआ है । तो ऐसे सूक्ष्म पुद्गलकर्म वे भी निज नहीं है क्योंकि वे भी साक्षात् पुद्गल हैं । और निकट आइये तो उन पुद्गल कर्मों के उदय का निमित्त पाकर जो जीव में विकल्प होता, विचार होता, रागद्वेष होता यह भाव भी निज नहीं है । यद्यपि ये भाव मेरे में ही हुए, मेरी ही परिणति है, पर मेरी चीज तो वास्तव में वह हैं जो मेरे में मेरे ही स्वभाव से हो । किसी परद्रव्य का निमित्त नहीं है इसमें । और निकट आइये तो आत्मा में जो विचार चलते हैं, तर्क चलता, ज्ञान चलता, यह भाव तो निज है ना ? अरे ! यह भाव भी निज नहीं है । और ज्ञान चल रहा, पर अधूरा ज्ञान होना यह तो आत्मस्वरूप नहीं है । यह क्षायोपशमिक ज्ञान है । विकल्प है, यह भी मैं नहीं हूँ । अच्छा तो और निकट चलें―यद्यपि मुझमें तो नहीं है केवलज्ञान मगर प्रभु में हो जाता न ? तो ऐसा जो केवलज्ञान है वह तो निज होगा ? अरे ! वह भी निज नहीं है । यद्यपि केवलज्ञान स्वभावपर्याय है और केवलज्ञान केवलज्ञान ही अनंतकाल तक चलता रहेगा । तो भी ऐसा यदि मैं लक्षणतया केवलज्ञानरूप हऊं तो यह अनादि से ही रहना चाहिए था किंतु यह तो किसी दिन से पैदा हुआ है, इससे मालूम होता कि यह भी मैं नहीं हूँ । यह मेरी शुद्ध परिणति है । तब मैं क्या हूं ? अनादि अनंत एक सरीखा एक स्वरूप, जिसे कहते हैं ज्ञायक एक भाव, वह मैं हूँ । इसे कहा करते हैं―टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव । टांकी से उकेरी गई प्रतिमा की तरह एक ज्ञायकस्वरूप ।
टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव का अंतस्तत्त्व―टांकी से जो पत्थर की प्रतिमा बनायी गई है उसमें पहली बात यह मालूम होती है कि वह निश्चल है । जहाँ हाथ है वहाँ हाथ है, जहाँ जो अंग है वहाँ वह है । कहीं जापानी खिलौनों की तरह से उसको जिस चाहे जगह से मोड़ नहीं सकते । तो पत्थर में जो मूर्ति निकली है वह अचल है, निश्चल है उसका कोई अंग चलायमान नहीं होता ꠰ ऐसे ही आत्मा का जो ज्ञानस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप वह निश्चल है, वह चलायमान नहीं होता कि चलो जब कर्म का संबंध है तो यह आत्मा भी जड़ हो जाये, ऐसा कभी नहीं होता । दूसरी बात इस दृष्टांत में यह जानें कि टांकी से जो प्रतिमा उकेरी गई वह प्रतिमा किस विधि से बनी ? तो पहले एक बड़ा पाषाण था । प्रतिमा बनवाने के लिए कारीगर को बुलवाया और उसको बताया कि देखो इस पाषाण में इस तरह की प्रतिमा बननी है, क्या बना सकोगे ? तो वह कारीगर उस पाषाण को और जैसी प्रतिमा बनानी है उसको बड़ी अच्छी तरह से देखता है, कहीं इस पाषाण में कोई रेखा तो नहीं पड़ी है या पाषाण कुछ छोटा तो न रहेगा आदि सभी बातों का भली-भांति निरीक्षण करता है और फिर बता देता है कि हां, ठीक है, यह प्रतिमा बन जायेगी । अब देखो―उस कारीगर को वह प्रतिमा जब उस पाषाण के अंदर दिख गई तभी कहा कि ठीक है, बन जायेगी । अगर उस पाषाण के अंदर उसे वह प्रतिमा न दिख गई होती तो उस पाषाण में वह कारीगर उस-उस प्रकार से छैनी-हथौड़ा चला ही न सकता था । वह तो अटपट छैनी हथौड़ा मारा, पर उसे तो वह प्रतिमा पहले से ही उस पाषाण के अंदर दिख गई । तो अब वह क्या करता है । उस प्रतिमा को कहीं बाहर से मिट्टी पत्थर आदि कोई चीज लाकर नहीं बनाता किंतु करता क्या है कि उन पाषाणखंडों को हटाता है जो कि मूर्ति का आवरण किए हैं । पहले अत्यंत मोटे आवरणों को मोटी छैनी-हथौड़े से हटाता, फिर बारीक आवरणों को बारीक छैनी-हथौड़े से हटाता, फिर अत्यंत बारीक छैनी हथौड़ों से अत्यंत बारीक आवरणों को हटाता । उस स्थिति में तो ऐसा लगता कि यह कारीगर कई दिनों से कुछ भी काम नहीं कर रहा, फाल्तू रोजी ले रहा । पर ऐसी बात नहीं । अब देखिये―सारे आवरण हट जाने पर मूर्ति ज्यों कि त्यों प्रकट हो गई । तो ऐसे ही समझिये कि सिद्ध भगवान होने की विधि क्या है ? इस सम्यग्दृष्टि कारीगर ने इस वर्तमान आत्म-पत्थर में निरखा कि मुझे क्या बनाना है ? वह एक चैतन्यमात्र सिद्ध प्रभु बनाना है । उसने यहाँ समझा । समझ में आया कि हाँं यहाँ सिद्ध बन जायेगा । तो उस सम्यग्दृष्टि ने अपने आपमें उस निकट परमात्मस्वरूप को निरख लिया, यह प्रकट करना है । अब सम्यग्दृष्टि क्या काम करता है कि वह कहीं बाहर से कोई चीज ला-लाकर सिद्ध भगवान नहीं बनाता, किंतु उस सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप को ढांकने वाले जो पत्थर हैं याने जो देह रागद्वेष विकल्पादिक हैं उनको ज्ञान की छैनी से, ज्ञान की हथौड़ी से दूर करता है । विकार से रहित मेरा स्वरूप है, केवल ज्ञानमात्र मेरा स्वरूप है । उसको निरखता है और यह ही निरखन छेनी हथौड़ी है । इनके बल से वह रागद्वेष आदिक को दूर करता है । कर्म दूर हुए, रागद्वेष दूर हुए, देह दूर हुआ और सिद्ध भगवान प्रकट हो गए । सिद्ध भगवान के न गुण बनाये गए न कुछ । गुण तो थे ही । वह स्वरूप तो था ही, पर उस पर जो रागद्वेष का आवरण पड़ा था उस आवरण को हटाया कि जो था सो प्रकट हो गया । सिद्ध भगवंत के मायने क्या ? केवल आत्मा मात्र । उसके साथ अन्य कुछ नहीं लगा है । न कर्म, न देह, न विकार, न अधूरापन । जो है सो ही प्रकट हुआ है इसे कहते हैं सिद्ध भगवान् ꠰ तो यहाँ बात बनी कैसे ? स्व द्रव्य से । याने आत्मा का जो सहज शाश्वत चैतन्यस्वभाव है, स्व द्रव्य है उस ही पर धुन रहे, वही ज्ञान में रहे, उसी का आलंबन हो तो इस स्वद्रव्य से यह सिद्ध परिणति प्रकट हुई है । ऐसा जानकर परद्रव्य से तो राग छोड़िये और स्वद्रव्य में अपना अनुराग बनाइये, भक्ति बनाइये, मैं यह हूँ । लाख बात की एक यह ही बात है कि जिसका यह दृढ़ निश्चय है कि मैं यह मात्र चैतन्य स्वरूप हूँ । अन्य कुछ नहीं हूँ तो वह इस जीवन में भी धीरतापूर्वक रह लेगा और उसके कर्म भी निर्जीण हो जायेंगे और वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर लेगा ।
ज्ञान की दृढ़ता में आचरण की अपरिहार्यता―एक ही काम करना है हम आपको धर्म के लिए । यदि यह काम न कर सके तो धर्म नहीं हो रहा । वह क्या काम है ? निज सहजस्वरूप का ज्ञान कि अपने आपको ऐसा मान लेना, समझ लेना, जान लेना, श्रद्धान करना कि मैं समस्त परद्रव्यों से रहित केवल चैतन्यमात्र आत्मपदार्थ हूँ । यदि किसी का यह निर्णय है तो उसको संकट नहीं आ सकते । मान लो जिंदा सांप आगे पड़ा हो तो उसे देखकर जान लिया कि यह सांप है । पर यह अधिक विषैला है या कम विषैला है इस प्रकार का यदि ज्ञान हो जाये तो वह उस मौके पर वैसा काम कर लेता है । यदि अधिक विषैला सर्प हुआ तो वह उस मौके पर दूर भाग खड़ा होता है । तो जैसा ज्ञान होता वैसा आचरण होता ही है । अगर वहाँ आचरण न हो तो समझो कि इसको अपने ज्ञान में दृढ़ता नहीं है । यदि कोई उस सांप पर ही पैर रखे या उसे छुवे तो यह समझना चाहिए कि वह अभी बालकवत् अबोध है । उसको इस प्रकार के ज्ञान की दृढ़ता नहीं है कि यह विषधर सर्प है, और यह भयंकर प्राणघातक है । तो ऐसे ही जब कभी कोई कहता है कि ज्ञानवान होकर भी यह पाप में लग रहा है तो जहां वास्तविकता यह है कि पापों में जो लग रहा है वह ज्ञानवान् है ही नहीं । जो सर्प से जुट रहा उसको सर्प की भयंकरता का ज्ञान है ही नहीं अन्यथा वह हट जाता । तो जब ज्ञान की दृढ़ता होती है, निजसहज ज्ञानस्वभावरूप अपने को दृढ़ता से मान लेता है तो उसके विषयों में राग कभी हो ही नहीं सकता । भले ही विषयों में पड़ना पड़े पूर्वकृत कर्म के उदय से, पर वह विषयों में लगता नहीं है । उनसे विरक्त ही रहेगा । तो यों समझिये कि जो परद्रव्यों में उपयोग फंसाता है उसको दुर्गति ही प्राप्त होती है और जो स्व द्रव्य का आश्रय करता है उसका भला होता है । कितना सुगम स्वाधीन मुफ्त का एक महान धर्म प्राप्त हो रहा है, अर्थात् जिसमें न तन लगाना, न मन लगाना, न धन लगाना, न वचन लगाना किंतु एक ज्ञान द्वारा अपने आपको निरख लेना है कि यह मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, उसकी दृढ़ता होना । दृढ़ता कहते किसे हैं ? कि उसके विरुद्ध फिर कोई बात न सुहाये उसे कहते हैं दृढ़ता ।
दृढ़ भेदविज्ञानी संतों की दृष्टि और प्रवृत्ति―सुकुमाल को जो इतने सुकुमार थे कि जलता हुआ दीपक दिख जाये तो अश्रु आने लगें, रूई में बिनौले हों तो वे शरीर में गड़े, उन पर वे पड़ न सकें । कमल के फूलों में वासित चावल ही जिनके मुख में जा सकें, इतनी सुकुमारता में पले हुए सुकुमाल को जब एक सहज परमात्मतत्त्व का बोध होता है और कर्मविपाक की यह दशा विदित होती है तो वह साड़ियों का रस्सा बनाकर महल से नीचे उन साड़ियों के सहारे उतर जाते हैं, जमीन पर पैर घिसने से उनके पैरों से खून चू रहा है, मगर उस ओर उनकी दृष्टि ही नहीं है, जाकर दीक्षा ले ली । और पूर्वकर्म वश स्यालिनी ने उनके शरीर का भक्षण किया, लेकिन उन्हें कुछ भी उसका ध्यान नहीं । यह है ज्ञान की दृढ़ता । और, एक ज्ञानस्वरूप में ही उनका उपयोग बसा तो उन्होंने सर्वार्थसिद्धि का भव पाया । अब एक भव धारण करके ही वह मोक्ष जायेंगे । अनेक उदाहरण हैं जो कि उपसर्गों से जरा भी नहीं चिगे । उन्होंने कोई पीड़ा ही नहीं मानी, इतना उन्हें ज्ञान प्रिय था । इसे कहते हैं ज्ञान की दृढ़ता । कभी ज्ञान भी हो जाता और ज्ञान होने पर भी विषयादिक में प्रवृत्ति होती, मगर स्वच्छंद प्रवृत्ति नहीं होती । भीतर में उससे हटने का भाव होता । जिसके ज्ञान जगा है उसको नियम से क्रोधादिक कषायों से हटने की भावना रहती है, विषयकषायों से हटने की भावना ही न रहे तो निश्चित समझिये कि उसको सम्यग्ज्ञान प्रकट नहीं हुआ । तो जितना अपना निर्मल परिणाम है, अरहंत अवस्था हो, सिद्ध अवस्था बने, सहज आनंद की अवस्था आये, वह सब स्वद्रव्य से ही बनता है । उसमें किसी परद्रव्य के आश्रय की आवश्यकता नहीं होती । अब समझिये कितना सुगम है धर्म का पालन । कितना सुगम है कल्याण का लाभ । एक स्वद्रव्य से ही प्रयोजन रहा और अपना आत्मद्रव्य कभी मिटता नहीं है । सदा पास है । जिसकी दृष्टि करने से कल्याण होता है वह सदा साथ है । कितनी सुगमता है धर्मपालन की । इस तथ्य को जिन्होंने नहीं जाना वे धर्म के नाम पर कितनी ही क्रियायें कर लें पर उन्हें वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता । तो यहाँ आचार्यदेव कह रहे कि परद्रव्य से तो दुर्गति होती है और स्वद्रव्य से सद्गति होती है, ऐसा जानकर समस्त परद्रव्यों से वैराग्य लावें, भीतर से वैराग्य लावें । उनमें परिस्थितिवश लगना पड़े तो भी उनसे हटाव-सा बना रहे, ऐसा निज के अभिमुख हों और अपने आत्मतत्त्व में भक्ति जगावें । जो कुछ मिलेगा मुझको वह मेरे ही पुण्य के उदय से मिलेगा, अन्य किसी परवस्तु से मुझे कुछ नहीं मिल सकता । ऐसा स्वद्रव्य में जो अनुरागी होता है वह कल्याण प्राप्त करता है ।