वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 17
From जैनकोष
आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि ।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थसव्वदरिसीहिं ꠰꠰17।।
परद्रव्यों का परिचयन―इससे पहले की गाथा में बताया था कि जो परद्रव्य में लीन होता है उसकी कुगति होती है और जो स्वद्रव्य में लीन होता है उसकी सुगति होती है । तो वे परद्रव्य क्या-क्या हैं कि जिन में लीन होने से दुर्गति होती है उस परद्रव्य का इसमें विश्लेषण किया है । आत्मा के स्वभाव के अतिरिक्त जो-जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब परद्रव्य कहलाते हैं । चाहे वह सजीव हो चाहे अजीव हो, चाहे वह जीवाजीव हो, जैसे पुत्र, मित्रादिक ये सजीव कहलाते हैं । धन, वैभव आदिक अजीव कहलाते हैं और ग्राम, नगर आदिक ये जीवाजीव कहलाते हैं । मायने जीव पदार्थ और अजीव पदार्थ इनके समूह को गांव बोलते हैं । खाली घरों का नाम गांव नहीं या केवल मनुष्यों का नाम गांव नहीं किंतु जहाँ मनुष्य बस रहे हैं उन घरों के समूह का नाम गांव है । तो चाहे सचित्त पदार्थ हों चाहे अचित्त, चाहे मिश्र, जो आत्मस्वभाव से अन्य हैं वे सब परद्रव्य कहलाते हैं । अब सूक्ष्मदृष्टि से विचार करें तो जो अत्यंत भिन्न क्षेत्र में हैं वे परद्रव्य हैं, इनकी समझ करने की दिक्कत नहीं पड़ती, पर जो आत्मा के क्षेत्र में बस रहे हैं वे परद्रव्य हैं ऐसी समझ बनाने में थोड़ा विवेक चाहिए । जैसे शरीर यह परद्रव्य है । भले ही आज बंधन में है किंतु आत्मस्वभाव से ये भिन्न है अतएव परद्रव्य है । कर्म जो सूक्ष्म पुद᳭गल वर्गणायें हैं जीव के कषाय का निमित्त पाकर कर्मरूप बन जाती हैं वे भी परद्रव्य हैं, पौद्गलिक हैं, आत्मस्वभाव से अन्य हैं; और कर्म के उदय से जो रागद्वेष-मोहभाव जगता है वह भी परद्रव्य है, आत्मस्वभाव से अन्य है । इन सबमें लगाव रखना, प्रीति करना दुर्गति का कारण है ।