मोक्षपाहुड - गाथा 77: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं ।
लोयंतियदेव त्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति ꠰꠰77꠰।
भरतक्षेत्र के दुःषमकाल में भी रत्नत्रयशुद्ध आत्मावों की इंद्र व लौकांतिक देवों में उत्पत्ति एवं वहाँं से च्युत होकर निर्वाण की प्राप्ति―आज भी रत्नत्रय से सिद्ध हुए पुरुष आत्मा का ध्यान करके इंद्रपद को, लौकांतिक देव पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से च्युत होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं, आज भले ही इसी भव से मोक्ष नहीं है लेकिन जो आत्मा अपने सहज चैतन्यस्वरूप आत्मा का ध्यान करते हैं वे इंद्रपद को पाते हैं और ऐसे इंद्रपद को पाते हैं जो एक भवावतारी होते हैं, इंद्रपद से च्युत होकर, मनुष्य होकर, निर्ग्रंथ महाव्रती होकर मोक्ष जाते हैं, ऐसे ही लौकांतिक देवों में ये उत्पन्न हो जाते हैं । आज के मनुष्य जो रत्नत्रय से सिद्ध हुए हैं सो वे भी लौकांतिक देवों से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । लौकांतिक देव भी एक भवावतारी होते हैं । इस गाथा में यह स्पष्ट है कि आज भी पंचम काल में उत्पन्न सैनी पंचेंद्रिय उत्तम कुली मनुष्य दीक्षा धारण करते हैं, रत्नत्रय से पवित्र होते हैं और वे इंद्रादिक पदों को प्राप्त होते हैं । जो लोग कहते हैं इस समय महाव्रती नहीं हैं वे अज्ञानी हैं और जिनशासन से बाह्य हैं ꠰ ये लौकांतिक देव वैराग्यप्रिय होते हैं, इनके देवांगनायें नहीं हैं । इनको ब्रह्मचर्य ही प्रिय है, इन्हें देवर्षि भी कहते हैं ꠰ ऐसे उच्च पद आज भी मनुष्य रत्नत्रय के बल से प्राप्त कर लेते हैं, ऐसा धर्मध्यान आज भी संभव है ।