वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 76
From जैनकोष
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेई साहुस्स ।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।।76।।
भरतक्षेत्र के इस दुःषमकाल में भी साधु के धर्मध्यान की संभवता―इस भरतक्षेत्र में इस दुस्सम नामक पंचम काल में साधु के धर्मध्यान होता है और वह धर्मध्यान आत्मस्वभाव में स्थित होने पर होता है, ऐसा जो नहीं मानता वह अज्ञानी है । ढाई द्वीप में कर्मभूमियां तो भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में है और भोगभूमियां शेष क्षेत्रों में हैं जिनमें विदेहक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले सदैव मोक्ष जा सकते हैं, किंतु भरत ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में मोक्ष जाते हैं । यह है पंचमकाल, इस काल में हीन संहनन है इस वजह से पंचमकाल में पैदा हुआ मनुष्य मोक्ष नहीं जाता लेकिन इस काल में धर्मध्यान तो होता है और वास्तविक धर्मध्यान तो आत्मस्वभाव में स्थित होने पर होता है क्योंकि धर्म है आत्मा का स्वभाव और आत्मस्वभाव में जिनका उपयोग लगा है उन साधुवों के चूंकि ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही लक्ष्य हो रहा है इस कारण धर्मध्यान हो जाता है, किंतु यह तथ्य जो नहीं मानता वह अज्ञानी है । तात्पर्य यह है कि इस अवसर्पिणी काल में, पंचमकाल से जहाँ मोक्षमार्ग का प्रचलन नहीं है वहाँ धर्मध्यान का निषेध नहीं है । इस समय भी जो आत्मभावना से तन्मय हुआ उस साधु के धर्मध्यान हो जाता है लेकिन वैषयिक रागवश स्वच्छंद हुए प्राणी अज्ञानवश ऐसा कहते हैं कि आजकल धर्मध्यान का समय नहीं हो सकता है । किंतु धर्मध्यान आज भले प्रकार संभव है, यह आचार्य बतला रहें ।