समयसार - गाथा 288: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
(मोक्षाधिकार)
प्रवक्ता―अध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ पूज्य श्री 105 क्षु0 मनोहर जी वर्णी (सहजानन्द) महाराज
आत्मरंगभूमि में भेषपरिवर्तन―शुद्ध ज्ञानज्योति का उदय होने से बंध के भेष से ये कर्म दूर हो गए हैं, अथवा बंध के भेष से यह आत्मा दूर हो गया है अब इसके बाद मोक्ष तत्त्व का प्रवेश होता है । आत्मा अनादि अनन्त अहेतुक ध्रुव पदार्थ है । आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये 5 जीव के स्वांग हैं । इनमें से कुछ स्वांग तो हेय हैं, कुछ उपादेय हैं, और मोक्ष का तत्त्व सर्वथा उपादेय है । यह जीव गत अधिकार में बंध तत्त्व के स्वांग से अलग हो चुका है । अब मोक्षतत्त्व के भेष में इसका प्रवेश होता है । जैसे नृत्य के अखाड़े में स्वांग प्रवेश करता है, इसी प्रकार यह ज्ञान पात्र अब मोक्ष तत्त्व में प्रवेश करता है ।
ज्ञान का ज्ञानत्व―यह ज्ञान समस्त स्वांगों को जानने वाला है । मोक्षतत्त्व के सम्बंध में भी इस जीव का किस प्रकार से सम्यग्ज्ञान चल रहा है इसको मुक्ति पाने के उपदेश से देखें? यह सज्ज्ञानज्योति प्रज्ञारूपी करौंत के चलने से बंध और पुरुष को पृथक् कर देती है, जैसे एक बड़े काठ को बढ़ई करौंत चलाकर उसके दो अंश कर देता है, वे दो भिन्न-भिन्न अंश में हो जाते हैं, इसी प्रकार प्रज्ञारूपी करौंत चलाकर कर्म और आत्मा का जो एक पिंड था उस पिंड को अलग-अलग कर दिया ।
सीमा की पृथक्त्वकारणता―भैया ! वस्तुओं को अलग-अलग करने का कारण सीमा होती है, जैसे कोई एक बड़ा खेत है, दो भाइयों में सम्मिलित है, दोनों भाई अलग-अलग होते, हैं तो उस खेत के दो टुकड़े किये जाते हैं । उस टुकड़े का विभाग सीमा करते हैं, बीच में एक मेड़ डाल देते हैं या कोई निशान बना देते हैं । उस सीमा से उसके दो भाग हो जाते हैं । इसी प्रकार आत्मा और अनात्मा ये दो मिले हुए पिण्ड हैं । इनको अलग करना है तो उनकी सीमा परखिये । इस आत्मा की सीमा है समता अर्थात् ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहना । तो जितना यह समता का परिणाम है, ज्ञाता द्रष्टा रहने की वृत्ति है उतना तो है यह आत्मा और जितना समता से दूर परभावों रूप परिणाम है अथवा असमता है, अज्ञान है वह है अनात्मतत्त्व ।
प्रज्ञा छैनी से द्वेधीकरण―अब प्रज्ञारूपी छैनी से अथवा करोंत से इन दोनों को स्पष्ट अलग कर देना है । एक ज्ञानानन्दस्वरूप वृत्ति वाला यह मैं आत्मा हूँ और प्रकट अचेतन ये देहादिक अनात्मा हैं, और पर का आश्रय पाकर, कर्मोदय का निमित्त पाकर उत्पन्न होने वाले जो रागादिक विकार हैं ये सब अनात्मा हैं । अनात्माओं को त्यागकर अपने आपके ज्ञायक स्वरूप में प्रवेश करना सो मोक्ष का मार्ग है, यों यह ज्ञान बंध और आत्मा को पृथक् कराकर मोक्ष को प्राप्त कराता हुआ जयवंत प्रवर्त रहा है । वह पुरुष अपने स्वरूप के साक्षात् अनुभव कर लेने के कारण नि:शंक, निश्चिन्त, निश्चित निर्णयवान है । जब अपने आपके ज्ञायक स्वरूप का ज्ञान होता है तब यह निश्चय हो जाता है कि मैं तो स्वभाव से ही आनन्द स्वरूप हूँ, मुझमें क्लेश कहां है, क्लेश तो कल्पना करके, विचार करके बनाया जाता है । सो यह जीव उद्यम करके, कल्पना करके, श्रम करके अपने को दु:खी करता है । स्वभावत: तो यह आनन्दस्वरूप ही है ।
आत्मग्रहण के लिए अनात्मत्याग―भैया ! यदि कोई पुरुष अपने आपके यथार्थ चिंतन में दृढ़ हो जाये तो उसको कहीं क्लेश नहीं है, किन्तु ऐसा होने के लिए बड़ी त्याग की आवश्यकता है । इन अनन्त जीव में से घर के तीन चार जीवों को यह मान लेना कि ये मेरे हैं यह मिथ्या कल्पना ही तो है । इस कल्पना का परित्याग करना होगा । जब तक अज्ञान अवस्था रहती है इस मिथ्या कल्पना के त्याग में बड़ी कठिनाई महसूस होती है । कैसे त्यागा जाये ? जब ज्ञान ज्योति का उदय होता है तब ये मेरे हैं ऐसा मानना कठिन हो जाता है । जैसे अज्ञान में ममता को दूर करना कठिन है इसी प्रकार ज्ञान में ममता का उत्पन्न करना कठिन है । जब यह ज्ञानी यह निर्णय कर लेता हे कि मैं आत्मा स्वत: आनन्दस्वरूप हूं, जो मेरे में है वह है, जो नहीं है वह त्रिकाल आ नहीं सकता । ऐसा स्वतन्त्र असाधारण स्वरूपमय अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है उस समय यह इस प्रकार विजयी होता हुआ प्रवर्तता है प्रसन्न, निराला होता हुआ विहार करता है । हमारे करने योग्य कार्य हमने कर डाला, अब हमारे करने को शेष कुछ नहीं रहा । इस प्रकार सहज परम आनन्द से भरपूर होता हुआ वह ज्ञानमात्र होकर अब जयवंत होता हुआ विहार कर रहा है ।
प्रतीति के अनुसार निर्माण―यदि इस आत्मा का झुकाव आत्मस्वभाव की ओर है, अपने एकत्व को परखने की ओर है तो इसको रंच क्लेश नहीं होता । और, बाहर में चाहे किसी को मेरे प्रति बहुत आदर हो और सुहावना वातावरण हो, लेकिन यह आत्मा जब यह कल्पना कर बैठता है कि यह तो मेरे विरुद्ध है इसका मेरी ओर आकर्षण नहीं है ऐसी बुद्धि जब उत्पन्न हो जाती है तो यह मन ही मन में संक्लिष्ट होता रहता है, यह सब अपने भावों का ही खेल है । हम अपने ही परिणाम से संसारी बनते हैं और अपने ही परिणाम से मुक्त हो जाते हैं । मुझे दुःखी करने वाला इस लोक में कोई दूसरा नहीं है । मैं ही विचारधारा वस्तुस्वरूप के प्रतिकूल बनाता हूँ, अपने आत्मतत्त्व के प्रतिकूल बनाता हूँ तो यह मैं ही दु:खी हो जाता हूँ । जब मैं अपनी ज्ञानधारा को वस्तुस्वरूप के अनुकूल बनाता हूँ, आत्मस्वभाव के अनुकूल बनाता हूँ तब इस मुझमें आनन्द भरपूर हो जाता है ।
महापुरुषों के जीवन की तीन स्थितियां―इस समय यह ज्ञान मुख्य पात्र जो कि उदार है, गम्भीर है, अधीर है, जिसका अभ्युदय महान् है, ऐसा यह ज्ञान अब मोक्ष के रूप में प्रकट होता है । यह जीव और कर्म के अन्तर्युद्ध का अन्तिम परिणामरूप अधिकार है । जैसे नाटक में मुख्य पात्रों की पहिले कुछ अच्छी अवस्था बतायी जाती है । फिर बहुत लम्बे प्रकरण तक दुःख, उपसर्ग विपत्ति, बाधा बतायी जाती है और फिर अंत में विपत्ति से छुटकारा कराकर कुछ आनन्दरूप स्थिति बतायी जाती है । इसके बाद नाटक समाप्त किया जाता है । जितने भी नाटक लिखे जाते हैं या जितने भी पुराण पुरुषों के चरित्र हैं उनमें यही ढंग पाया जाता है । बीच का काल विपत्ति में बताकर अन्त में विपत्ति से छुटकारा बतायेंगे । कोई सा भी नाटक ले लो उसमें यह पद्धति मिलेगी।
पात्रों की तीन स्थितियों के कुछ उदाहरण―जैसे सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र नाटक में ये तीन बातें बतायी हैं । पहिले वे सुख सम्पन्न थे, मध्य में उन पर कितनी विपत्तियां आयीं, उन विपत्तियों मैं अपना विवेक
रखा जिसके प्रताप से अन्त में फिर विजयी हुए । श्रीपाल नाटक भी देख लो । पहिले कैसा राज्य वैभव बताया, मध्य में कुष्टी होने आदि के कितने दुःख बताये और अन्त में कुट मिला, राज्याधिकारी हुए और विरक्त होकर साधु हुए । मैना सुन्दरी का नाटक देखो―प्रथम कैसा सुख बताया मध्य में कितने क्लेश बताये । जान बूझकर उसके पिता ने दरिद्र, कुष्टी, कुरूप वर को ढूंढ़ा था, भला कौन उसे दयावान कह सकेगा जो अपनी लड़की के लिए दरिद्र, असहाय, खाने का जिसके ठिकाना नहीं, ऐसा वर ढूंढ़ें । उसे तो लड़की का बैरी कहेंगे । कितना कष्टमय जीवन बिताया और अंत में फिर उसने कैसा चमत्कार दिखाया । तो नाटक में कथानक में इस तरह प्राय: तीन दशावों की बातें चलती हैं ।
आत्मविवरण में तीन स्थितियां―इसी प्रकार यह आत्मा का जो निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धवश हो रहा नाटक है, उस नाटक के वर्णन में प्रथम तो आत्मा का स्वरूप दिखाया । यह आत्मा एकत्व विभक्त है, शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है । इसमें न विकार का दोष है, न गुणभेद का दोष है । यह तो जो है सो ही है, इसका यथार्थ स्वरूप बताकर फिर इसकी विपत्तियां दिखायेंगे । यह भूल गया अपने को, सो आश्रव और बंध की लपेटों में यह नाना कल्पनाएं करके दुःखी होता है । आश्रव और बंध के प्रकरण में यद्यपि आध्यात्मिक ग्रन्थ होने से भेदविज्ञान की शैली से सब दिखाया, किन्तु यहाँ विपत्तियां और उपसर्ग जो इस पर पड़ते हैं वे सब दिखाये गये हैं । वहाँं उसने विवेक किया, भेदविज्ञान किया, साहस बढ़ाया । जिसके प्रताप से भेद को हटाकर निज अभेद में आया, अपना प्रसाद पाया । निर्मलता बढ़ी और अब यह मोक्ष तत्त्व में प्रवेश करने वाला हुआ ।
यह इस अधिकार का मंगलमय वचन है कि यह ज्ञान ज्योति बंध को और आत्मा को पृथक् करके आत्मा को बंध से मुक्त कराता हुआ अपना सम्पूर्ण तेज प्रकट करके सर्वोत्कृष्ट कृतकृत्य होता हुआ जयवंत प्रवर्तने वाला है । इस मोक्ष अधिकार में सर्व प्रथम दृष्टान्तपूर्वक यह बतायेंगे कि जिससे बन्ध होता है, यह जीव उसका छेद करने से मुक्त हो जाता है ।
जह णाम कोवि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपब्बिद्धो ।
तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणए तस्स ।।288।।