वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 289
From जैनकोष
जह णवि कुणइच्छेदं ण मुच्चए तेण बंधणवसो सं ।
कालेण य बहुएणवि ण सो णरो पावइ विमोक्खं ।।289।।
बंधन के मान मात्र से छुटकारा का अभाव―जैसे कोई पुरुष चिरकाल से बंधन में बंधा हुआ है वह पुरुष उस बंधन के तीव्र मंद स्वभाव को भी जानता है और उसके संबंध को भी जानता है । फिर भी उसके जानने से बंध नहीं कटते हैं और यह बंधन में बंधा हुआ ही रहता है । उससे छूटता नहीं है । जैसे किसी पुरुष को एक वर्ष का कारावास का दंड दिया गया और लोहे की बेड़ी पहनाकर जेल में रख दिया । वह पुरुष जान रहा है कि यह लोहे की बेड़ी है, इसको बांधे हुए है, यह कठोर है, कड़ा बंधन है । एक वर्ष के लिए यह बंधन है । इतना सब कुछ जानकर भी क्या वह उस बंधन से मुक्त हो जाता है ?
ज्ञान के अमल से मुक्ति―यहाँं यह दिखाया जा रहा है कि ज्ञान मात्र से मोक्ष नहीं होता, किंतु ज्ञान करके इस ज्ञान पर अमल करने से उसके अनुसार भावना बनाने से तद्रूप परिणमन करने से मोक्ष होता है । कारागार में रहते हुए भी किसी कैदी का बरताव भला हो जाये और उसकी प्रकृति सुधर जाये तो उस कारागार की स्थिति में भी उसे सहूलियत मिलती है और उसकी अवधि कम कर दी जाती है । जो जानता है कारागार से छूटने का उपाय, उस पर अमल करने से छूट पाता है ।
दृष्टांतपूर्वक दार्ष्टांत का वर्णन―जैसे मह कारागारवासी बंधनबद्ध पुरुष चिरकाल से बंधन में बंधा हुआ है उस बंधन के तीव्र मंद स्वभाव को जानता है, और उससे छूटने की कला को भी जानता है, पर यदि वह बंधन के छेद को नहीं करता, नहीं काटता तो वह छूटता नहीं है । बंधन के वश होता हुआ बहुत काल तक भी वह मुक्ति को प्राप्त नहीं होता । जैसे इस दृष्टांत में यह बताया है कि केवल बंध के स्वरूप के ज्ञान से इस कैदी को मुक्ति नहीं होती है इसी तरह इस आत्मा को भी मात्र बंध के स्वरूप के ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है । इस बात को इस गाथा में कह रहे हैं ।