ज्ञानार्णव - श्लोक 1150: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
आशा: सद्यो विपद्यंते यांत्वाविद्या: क्षयं क्षणात्।
भ्रियते चित्तभोगींद्रो यस्य सा साम्यभावना।।1150।।
जिसके ममता की भावना है उस रूप अपने आपका अनुभव बनाना है। अपने आपका ऐसा संतुलन बना लेना हे कि यह उपयोग न इष्ट में जाय, न अनिष्ट के पलड़े में जाय। कोई सा भी पलड़ा भाररूप न बने ऐसा संतुलन जिस ज्ञानतराजू का बन जाता है उस पुरुष की आशा शीघ्र ही दूर हो जाती है। अविद्या क्षणमात्र में क्षय को प्राप्त हो जाती है, चित्त विलीन हो जाता है, विकल्प तरंग सब विनष्ट हो जाते हैं। देखिये एक नई और अपूर्व दुनिया में प्रवेश किया जा रहा हे। बल्कि इतनी सी बात में कि हम अपने आपको यथार्थ स्वरूप में मान लें। मैं किस रूप हूँ इतना सा ही काम और जिसका फल देखो तो अनंत शांति परम पवित्रता, ये सब चमत्कार उत्पन्न होते हैं। इसमें क्या जाता है यदि अपना ज्ञानप्रकाश यों बन जायकि जैसा में स्वयं हूँ तेसा मैं अपने आपको मान लूँ। सोच लीजिए इसमें कौनसी कठिनाई है? कहाँ विरोधता है? क्या गरीब नहीं कर सकते यह? कोई भी कर ले पर ऐसा अनुभव आ जाय तो समझ लीजिए सब कुछ पाया और इस अनुभव बिना कैसा ही समागम मिला हो वह सब धोखा है। ये समागम विश्वास के योग्य नहीं हैं, हितरूप नहीं हैं, परतत्त्व हैं। अपने आपकी सुध लेना यह बहुत बड़ा अपूर्व काम है, सुगम और स्वाधीन है, इस पर ही हमारा कल्याण निर्भर है।