वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1151
From जैनकोष
साम्यकोटि समारूढो यमी जयति कर्म यत्।
निमिषांतेन तज्जन्मकोटिभिस्तपसेतर:।।1151।।
समतापरिणाम का महात्म्य बतला रहे हैं कि जो पुरुष समता की कोटि पर आरूढ़ हो जाता हे वह पुरुष जितने कर्मों का ध्वंस करता है केवल एक क्षणमात्र में उतने कर्मों का ध्वंस अन्य पुरुष जो कि समताभाव में नहीं लगा है, रागद्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि में फँसा है वह पुरुष करोड़ों जन्म भी कठिन से कठिन तपश्चरण भी कर डाले तो भी उतने कर्मों का ध्वंस नहीं होता, इसका कारण यह है कि कर्म आते हैं तो भाव का निमित्त पाकर और इसी प्रकार कर्म नष्ट होते हैं सो भी भाव का निमित्त पाकर। तो जब भाव एक शुद्ध स्वभाव का आलंबन करने वाला बनता है तो भी उसे अनेक जन्मों में बांधे हुए कर्मों का विजय प्राप्त कर लेता है। समतापरिणाम कहो या तीन गुप्ति कहो। मन वश में करना, वचन वश में करना और काय वश में करना ये तीन योग जब वश में होते हैं तब कर्मों पर विजय प्राप्त कर लिया जाय और समताभाव आ जाय। जब तक चित्त चंचल है, चित्त में रागद्वेष की वासना बसी हुई है तब तक समतापरिणाम नहीं आ सकता। तो धर्मपालन कहो और रत्नत्रय क्षमा आदिक 10 धर्म किन्हीं भी शब्दों में कहो, सबका मर्म समतापरिणाम से है। जहाँ समता भाव हे वहाँ धर्म है, जहाँसमता नहीं हे वहाँ धर्म नहीं है। वे मुनि जो यथार्थ आत्मा का स्वरूप जानते हैं और रागद्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि में कदाचित् नहीं फँसते हैं वे योगी ऐसा साम्यभाव लाते हैं अपने उपयोग में कि जिस कारण क्षणमात्र में ही अनेक भवों में बांधे हुए कठिन से कठिन कर्म भी ध्वस्त हो जाते हैं।