ज्ञानार्णव - श्लोक 130: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
भूप: कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायक:।
शरीरी परिवर्तेत कर्मणा वंचितो बलात्।।130।।
देहियों का विचित्र परिवर्तन― इस संसार में यह प्राणी कर्मों से बलात् ठगा गया है। राजा तो मरकर कीड़ा बन जाता है और कीड़ा मरकर देव बन जाता है। ऐसी नीची गति से उच्च और उच्चगति से नीच गति पलटती रहती है। संसार नाम परिभ्रमण का है, परिवर्तन का है। यही तो एक दु:ख है। उच्च गति प्राप्त की, उच्च स्थिति प्राप्त की, और उसके बाद नीची गति मिली। इसमें क्या होता है? नीची स्थिति मिले तब बड़ा क्लेश मानता हे यह। अथवा इसे क्या पता कि पहिले मैं क्या था, अब क्या हूँ। किंतु जो भी स्थिति मिलती है उसही में अनेक कल्पनाएँ बना लेता है।
संतोष की रेखा का अदर्शन― अहो, कहाँ संतोष करे यह जीव? कौनसी रेखा संतोष की है कि जहाँ यह जीव टिक जाय? धन की दिशा में तो संतोष की रेखा कहीं नहीं मिलती। लौकिक विद्यावों की दिशा में संतोष की रेखा कहीं नहीं मिलती, ऐसे ही धर्म की समाज की दिशा में संतोष की रेखा कहीं नहीं मिलती। कितना धन हो जाय तो संतोष हो सकता है, इसका कोई परिमाण नहीं है? ऐसे ही लौकिक ज्ञान कल्याण भावना से रहित पुरुष का ज्ञान कितना बन जाय कि वहाँ संतोष हो इसकी भी रेखा कहीं नहीं है। आविष्कारों पर अविष्कार बनते जाते हैं, आगे जिज्ञासा बढ़ती है, अपने विकल्प और लंबे करते जाते हैं। लोक में यश और नाम की दिशाओं में भी कोर्इ रेखा ऐसी नहीं कि जहाँ यह जीव संतोष कर सके। कभी कोर्इ गाँव का ही नेता बन गया हो तो यह बड़ी खुशी मानता है। देखो अब की बार हम म्यूनिस्पिल्टी के मेंबर बन गए। पर इतने से वह संतोष नहीं करता। कुछ समय बाद इच्छा होती है कि मैं चेयरमैन बन जाऊँ, पर इतने से भी चैन नहीं मानता वह। फिर जिले का, प्रांत का, देश भर का और फिर विश्व भर का नायक बनना चाहता है।
अज्ञान का संकट― प्रत्येक सांसारिक स्थिति में इसके संकट लगे रहते हैं, किसी भी स्थिति में हो, जो देश का मालिक है उसके संकट उसकी तरह के हैं, जो गाँव का नायक है उसके संकट उसकी तरह के हैं। संकट सब पर लदे हैं और उसका कारण बाह्यपरिस्थिति नहीं है कि इस पर देशभर का बोझ है इस कारण संकट है, इस-इस तरह का संचय है या जिम्मेदारी है इस कारण संकट है, यह बात नहीं है। सब संकटों का मूल अज्ञानभाव है। आत्मा का स्पर्श न हो सके, आत्मा की अनुभूति न जगे, सबसे निराला सूक्ष्म, अछेद्य, अभेद्य, किसी की पकड़ में न आने वाला, किसी के साथ किसी का नाता नहीं, संबंध नहीं, ऐसे निज सहजस्वरूप की दृष्टि नहीं जगी इसी कारण यह अपने पंख बहुत फैलाना चाहता है। यही सब क्लेशों की जड़ है।
संसार की अनभिलष्यता― भैया ! इस संसार में क्या चाहते हो? जब यह स्थिति बन रही है कि राजा तो मरकर कीड़ा बन जाय और छोटे-छोटे तिर्यंच पंचेंद्रिय मरकर देव बन जायें। जब यह स्थिति है तो यहाँ किस बात में रमा जाय? यहाँ कोई रमने का स्थान नहीं है। अपने आपके अंत:स्वरूप का उपयोग द्वारा सिंचन बना रहे तो इसमें वह बल बनता जायेगा कि जिससे संकटों के सहने की शक्ति रहे और यथार्थ ज्ञाता द्रष्टा रह सकें। इतनी भर तो सारभूत बात है और बाकी तो सब लोकाचार में लोकदृष्टि से ठीक माना जाता है, वस्तुत: तो वह सब विरूपक विपदा है। यह जीव कर्मों के वश होकर जगह-जगह ठगा जाता है। विषयों का लोभ हो तो उससे यह जीव ही ठगा गया। कषायों की जागृति हो तो उससे यही जीव ठगा गया।
वर्तन और कर्तव्य― भैया ! कोई किसी का क्या बिगाड़ करता? खुद दुर्भाव करता और खुद ठगा जाता। ऐसे इस संसार में किसी भी पद में किसी भी स्थिति में रमण करने का यत्न न करें। हो रहा है उसे एक गले पड़े बजाय सरे की बात जाने। क्या करें? बहुत से मित्रों के साथ मजाक कर रहे थे कि मजाक-मजाक में ही एक मित्र को नीचा दिखाने के लिये उसके गले में ढोल डाल दिया तो वहाँ वह क्या करे? अगर कुछ क्रोध करने लगे तो उससे तो मजाक और कई गुना बढ़ जायेगा। उस समय का विवेक तो यही है कि दो पतली डंडी उठाये और घूम-घूमकर उसे बजाना शुरू कर दे। इससे मित्रों के द्वारा किया हुआ मजाक खत्म हो जायेगा। ऐसे ही क्या है? इस संसार में अनेक परिस्थितियाँ बन गयी हैं। गृहस्थी का समागम, मित्रजनों का समागम, अनेक-अनेक प्रकार की स्थितियाँ हैं, उसमें हम क्या करें? बस जैसे निर्वाह बने, जैसे इनसे सुलझना बने उस तरह का उपाय कर लें। पर बात मन में सही जानते रहें और यत्न करें अपने अंत:स्वरूप की ओर लगे रहने का।
संसार में संबंधों की मायारूपता― कहो माता मरकर पुत्री बन जाय, बहिन मरकर स्त्री बन जाय, कहो वही स्त्री मरकर पुत्र हो जाय, पिता मरकर पुत्र हो जाय और वही मरकर पुत्र का पुत्र हो जाय, इस प्रकार कितने ही परिवर्तन इस संसार में हो रहे हैं। किसको क्या एकांतत: मानें? ये सब संसारकूप में रहट की घड़ियां ऊपर आयी, नीचे गयीं, जैसे यह चक्र चलता है इस प्रकार यह सब संबंधों का चक्र है। आज यह कुछ है, कल यह कुछ हो जायेगा। आज पिता है, यही उसी का पुत्र हो जाय। तो यों ये कोई से भी संबंध कहीं जमकर नहीं रह सकते। अमुक जीव मेरा यह है ऐसा तो निर्णय नहीं है, कैसे मायाजाल है, इंद्रजाल है ! इंद्र मायने आत्मा उसका यह जाल है। कभी कुछ, कभी कुछ अथवा परमार्थरूप कुछ नहीं है, बनना बिगड़ना ही बना रहता है।
कर्तव्य का निर्णय― भैया ! गंभीरता से सोचिये परिवर्तनशील इस संसार में हमारा क्या कर्तव्य है, इसी परिवर्तन में बहते चले जायें क्या? कोई ठौर, कोई आश्रय, कोई आलंबन यहाँ परमार्थभूत नहीं है, जिस एक को पकड़कर जिए। एक पर अपना श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करके शरण लिए रहें तृप्त और संतुष्ट रह सकें― ऐसा काम तो केवल अपने को निर्मल ज्ञानमात्र अनुभव में लेना है। इस ही कार्य से उद्धार है, अन्य किसी भी उपाय से अपना कल्याण नहीं है। अठारह नाते की कथा प्रसिद्ध है। तीन व्यक्तियों में परस्पर में 6-6 नाते हो गए और बेढंगे नाते। यह सब एक संसार का संसरण है। यहाँ सारतत्त्व कुछ नहीं है। कोई भी स्थिति बड़प्पन की नहीं है कि जहाँ हम अपने को तृप्त कर सकें। कल्पना से थोड़ी देर को मौज मनाने से यह चूकता नहीं है, फिर अन्य कल्पनाएँ ऐसी बन जाती हैं कि वहाँ अपने आपको दु:खी बना लेता है। बचपन में और तरह का दु:ख। बड़े हुए, परिचय बना तब और तरह का दु:ख। कुछ इज्जत बढ़ी और बड़े बने, उम्र के बड़े हुए, लोक में बड़े हुए तब और तरह के दु:ख। जरा-जरा सी बात में अपना अपमान महसूस करना, यह विपदा इस अज्ञानी जीव पर हर जगह छायी हुई है। कहाँ जाय, कहाँ छुपे, कैसे बचे। जब तक अपने सत्य स्वरूप का भान नहीं होता तब तक जीव चैन का पात्र नहीं हो सकता।