वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 129
From जैनकोष
न के बंधुत्वमायाता न के जातास्तव द्विष:।
दुरंतागाधसंसारपंकमग्नस्य निर्दयम्।।129।।
बंधुता और शत्रुता का भ्रम― इस दुरंत अगाध संसाररूपी कीचड़ में फँसे हुए जीवों में से ऐसा कौनसा जीव है जो मित्र व शत्रु न हुआ हो? व्यतीत हुआ काल अनंत हो चुका है। जिसमें अनंत परिवर्तन समा जाते हैं। इस अनंत काल में अनंत बार जन्म लेने वाले इन प्राणियों के ऐसे-ऐसे जीवों के समागम हुए हैं कि कोई कभी, कोई कभी इसके बंधु हुए हैं, परिजन बने हैं और वे ही के वे ही सब किसी भव में शत्रु बने हैं। मित्रता और शत्रुता की तो नाना भवों की क्या कहानी कहें? इस ही भव में जो आज मित्र हैं, वे अगले भव में कभी शत्रु बन जाते हैं, और जो आज शत्रु हैं वे कारण पाकर कभी मित्र बन जाते हैं। वस्तुत: किसी जीव में शत्रुता और मित्रता का निर्णय नहीं है कि यह जीव किसी का शत्रु ही रहा करे अथवा यह जीव किसी का मित्र ही रहा करे। यह सब कषायों के मिलने और न मिलने का खेल है। जिस पुरुष से हमारी कषाय मिल जाती है वैसी कषाय हम रखते हैं उस ही प्रकार की कषाय दूसरे में हो तो बस मित्र बन गए। हमारी कषाय हो और तरह की और दूसरे की कषाय हो और प्रकार की, हमसे विरुद्ध तो शत्रु बन गये।
अज्ञानियों का खेल― जरासी देर में मित्र बन जाना, जरासी देर में शत्रु बन जाना यह सब क्या है? बच्चों जैसा खेल है। जैसे बालक एक जगह मिलकर खेलते हैं, पर थोड़े ही समय खेल पाये कि कुछ जरासी बात ऐसी बन उठी कि आपस में लड़ाई हो गयी, हाथापाई हो गयी। खेल छोड़कर अपने दरवाजे से निकलकर घर पहुँच गये और थोड़ी ही देर बाद घर से निकलकर फिर मिलजुलकर खेलने लगे। यह क्या है? क्षणिक में कषाय मिल गयी, क्षणिक में कषाय न मिली और उससे यह शत्रुता और मित्रता का खेल चल रहा है। ऐसे ही संसारी प्राणियों में विषयसाधनों का साधनभूत कषाय बन जाय तो वे मित्र हो जाते हैं और विषय साधनों में कोई बाधक बन जाय तो वे शत्रु हो जाते हैं।
अपनी संभाल के कर्तव्य पर दृष्टि― भैया ! अपने आपको संभालने का बहुत महत्वपूर्ण कार्य पड़ा हुआ है। किसी दूसरे पर क्या दृष्टि देते हो? उपेक्षा करो, ज्ञाता द्रष्टा रहो। अपने आपके परिणमों की संभाल पर अधिक दृष्टि देनी चाहिये। क्योंकि इस लोक में किसी भी जीव को कोई अन्य शरण नहीं हो सकता। खुद जैसा करेंगे वैसा भोगेंगे। अतएव अपनी करनी का सुधार होना चाहिये। पापों की बात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह अथवा क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा पंचेंद्रिय के विषयों के भोग आदिक में आसक्त न हो और अपने आपके स्वरूप के विचार सहित शुभ अथवा शुद्धपथ में वृत्ति जगे, यही है अच्छे होनहार की बात।
प्रीति अप्रीति हठ के परिहार में लाभ― जगत के जीवों में हम किससे प्रेम करें? जो आज इष्ट जँच रहा है वह अनेक बार विरोधी घातक प्राण लेने वाला शत्रु बना। किससे आज हम द्वेष करें? जिससे हम द्वेष करते हैं वह अनेक बार हमारा मित्र विषय साधक बंधु परिजन बना है। जब सभी जीव कभी कोई शत्रु हुये हैं, कभी कोई बंधु हुये हैं तो उनमें प्रीति अप्रीति करने का एकांत कैसे किया जाय? और फिर प्रेम और द्वेष के परिणमन विभाव है। बाह्यपदार्थों की ओर आकर्षण होने पर ऐसी प्रवृत्ति होती है, वह सब जीव का अहित है। इन कल्पनाओं को त्यागें और अपने स्वरूपस्मरण की ओर आयें।