ज्ञानार्णव - श्लोक 1551: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
आत्मानं वेत्यविज्ञानी तिलिंगी संगतं वपु:।
सम्यग्वेदी पुनस्तत्त्वं लिंगसंगतिवर्जितम्।।1551।।
जो भेदविज्ञान से रहित हो वह बहिरात्मा। जो पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग से रहित अपने को मानता है वह ज्ञानी पुरुष है। ज्ञानीपुरुष अपने आपके बारे में ऐसा चिंतन करता हे कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, परिणमता हूँबस अब इसी को बढ़ा लीजिए जो कुछ बढ़ाना हो।वैसे तो प्रति समय अभेद है और उसकी जो अवस्था है वह भी उस काल में अभेद है, पर अपने आपकी स्वरूप सत्ता की प्रतिष्ठा रखने के लिए जो परिणमन चलता है वह तो है तन्मात्र अपने को जाने सो ज्ञानी है और उस अंतस्तत्त्व को भूलकर बाह्य में किन्हीं को भी अपनाए तो उसके सम्यक बोध नहीं है। अपने आपको जाने, अपने आपको माने, अपने में रत रहे यह बात जिस प्रकार बने, जैसे बने उसको बनायें और अपने में अपने आपको निरखकर प्रसन्न रहने का प्रयत्न करें, इसमें ही अपना हित है।