वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1550
From जैनकोष
कृत्वाहंमतिमन्यत्र बध्नाति स्वं स्वतश्चुत:।
आत्मन्यात्ममतिं कृत्वा तस्माद् ज्ञानी विमुच्यते।।1550।।
जो आत्मा स्वभाव से च्युत हो गया।ऐसा अज्ञानी पुरुष अन्य पदार्थों में अहंबुद्धि करके अपने आपमें बंधता है। देखिये अपने ही उपयोग से, अपनी ही करतूत से, अपनी ही विशिष्ट परिणतियों से उसने अपना बंधन बनाया, इसके बांधने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। आत्मा को कौन बांधे? यह आत्मा ही स्वयं कल्पनाएँकरता है और बंध जाता है। जैसे किसी भाई से स्नेह न हो तो वहाँ कोई बंधन नहीं है, और कोई बंधन नहीं है तो बड़े मौज में है, चाहे कितना ही कुछ चल रहा हो। ज्ञानी पुरुष जो है वह परपदार्थों को अपनाता नहीं, उसे सुलक्ष्य का निर्णय है और जानता है कि इसमें हित क्या रखा? किसी भी पर को अपनाया तो उससे लाभ क्या मिला? कदाचित् मान लो थोड़ी बहुत सुखसाता हो गई तो थोड़ी देर से इस जीव का पूरा क्या पड़ता? अज्ञान से यह जीव परपदार्थों का संचय करता और ज्ञान होने पर सबसे उपेक्षाभाव करता है, फिर बंधता नहीं। बंधन तो स्नेह में है। गाय ने बछड़े से स्नेह किया लो बंध गई। जिधर बछड़ा जाता है उधर गाय भगती जाती है। ऐसे ही समझो इस मोही जीव ने अज्ञानता के कारण अपने को पर के बंधन में डाल रखा है। ज्ञानी जीव तो अपने स्वभाव को दृष्टि में लेकर झंझटों से छूट जाता है, पर अज्ञानी जीव विषयों के पंक में ही रमकर अपने आपके संसार को लंबा करता है। हम आपका यह कर्तव्य है कि जहाँ तक बने, किसी जगह बने घर में, दूकान पर किसी भी स्थान पर, अपने आपमें देखें तो सही कि इस मुझ आत्मा में तत्त्व क्या बसा है? एक जानने के लिए कमर कस लें, अवश्य जानने में आयगा, फिर उसके सिवाय अन्य को जानने की धुन न बनायें। राग न करें तो अपने आपके स्वरूप का बोध हो सकता है और वही स्वरूपस्मरण हमारे क्लेशों को दूर कर देता है। आत्मस्वरूप का स्मरण ही तो शरण है, उसी के दर्शन से ज्ञानी जीव ने अपने आपमें कोई नवीन तत्त्व पाया है। तो ज्ञानी पुरुष तो दोषों से छूटता है और अज्ञानी पुरुष दोषों से बंधता है यह बात एक निचोड़ की आचार्यदेव लिखते हैं।