ज्ञानार्णव - श्लोक 1552: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
समभ्यस्तं सुविज्ञातं र्निणीतमपि तत्त्वत:।
अनादिविभ्रमात्तत्त्वं प्रस्खलत्येव योगिन:।।1552।।
जो प्राणी अपने आत्मस्वभाव से च्युत होकर अन्य पदार्थों में अहंबुद्धि रखता है वह अपने आपको बांधता है। कर्मों का आत्मा से बंधन होने में आत्मा का परिणाम निमित्त है। आत्मा के रागद्वेष मोह आदिक भावों का निमित्त पाकर लोक में भरी हुई कार्माण वर्गणा में कर्मरूप परिणम जाती हैं। सो ऐसे कर्मों का बंधन होने में निमित्त क्याहै? आत्मा के विकल्प, आत्मा के रागद्वेष मोह भाव। उन सबमें प्रधान है अहंकार। परद्रव्यों को अहंरूप मानना सो अहंकार है। यहाँ अहंकार का अर्थ घमंड न लेना किंतु पर को अहं करना सो अहंकार है। देह वैभव सब भिन्न पदार्थ हैं, उनमें मानना कि यह मैं हूँ― यह तो अहंकार है और यह मेरा है, ऐसा मानना ममकार है। परद्रव्यों में ममत्व बुद्धि हुई तो वह बंध गया। वह अज्ञानी जीव है। है तो पर और मानता है कि यह मैं हूँ और ऐसी मान्यता में मुख्य आधार है देह का संबंध। जीव इस देह को निरखकर मानता है कि यह मैं हूँ सो ऐसा जीव कर्मों से बंधता है, अपने आपको बंधन में डालता है परंतु जो ज्ञानी जीव हैं, आत्मा में आत्मबुद्धि करता है अतएव वह ज्ञानी जीव कर्मों से छूट जाता है। मैं किसको मानूँ इस पर इस बात की समस्या है। देह को मैं मानातो यह मोह हुआ, अज्ञान हुआ, इससे कर्मों का बंधन है और जैसा मैं हूँज्ञान ज्योतिर्मय समस्त परपदार्थों से निराला अपने सहज ज्ञानस्वभावरूप उसे मान लेना कि यह मैं हूँसो कर्मों से छुटकारा हो जाता है।मैं क्या हूँ, इसका हल कर लेना धर्मपालन के लिए सर्वप्रथम बात है। जिसने अपने मैं का हल नहीं किया वह किसके लिए तपश्चरण करे, किसके लिए क्या करे? मैं का निर्णय कर लेना बहुत जरूरी काम है। मैं धर्म का पालन करता हूँतो वह मैं क्या? यदि देह को ही मान लिया कि यह मैं हूँ और यह मैं धर्म का पालन करता हूँ तो वहाँ धर्मपालन नहीं है। जहाँ एक का आँकड़ा ही नहीं रखा है तो सारी बिंदियाँकाम न देंगी। एक का आँकड़ा हो तो प्रत्येक बिंदी दसगुना काम करती है। ऐसे ही यदि हम अपने आपके आत्मा का परिचय हो गया हो तो हमारे ये सब व्रत, संयम, तप, नियम उसमें 10 गुना काम करते हैं अर्थात् हम अपने यथार्थ रत्नमय में बढ़ते हैं और इस एक का ही पता न हो तो किसके लिए क्या कर रहे, इसका कुछ निर्णय ही नहीं। तो जो पुरुषअन्य पदार्थों में मैं का निर्णय किए हुए है वह तो कर्मों से बंधता है और जिसने अपने आत्मा में ही मैं का निर्णय किया है वह ज्ञानी कर्मों से छूटता है। यह में आत्मा ढेला-पत्थर आदिक की तरह पिंडरूप तो हूँ नहीं, जो हाथ से छूकर दिख सकूँ कि यह मैं आत्मा हूँ, अथवा रसना से चखाकर, घ्राण से सूँघाकर, चक्षु से दिखाकर तथा कर्ण से सुनाकर कह सकूँ कि यह आत्मा है, ऐसा भी नहीं है, किंतु यह तो मात्र ज्ञान द्वारा ज्ञान में अनुभवा जाता है। इसके जानने में अन्य कोई पदार्थ नहीं। एक ज्ञान का प्रयोग ही उपाय है। सो बड़े स्वस्थचित्त होकर बाह्यपदार्थों से मोह हटाकर अपनी ओर अपने उपयोग को लेकर मैं का निर्णय करना, अनुभव करना सो महान पुरुषार्थ है। ऐसा जीव कर्मों से मुक्त होता है।