वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1553
From जैनकोष
अचिद्दृश्यमिदं रूपं न चिद्दृश्यं ततो वृथा।
मम रागादयोऽर्थेषु स्वरूपं संश्रयाम्यहम्।।1553।।
अज्ञानी लोग देह में आत्मा का अनुभव करते हैं और देह को इस रूप में आत्मा का अनुभव करते कि में पुरुष हूँ, स्त्री हूँ अथवा नपुंसक हूँ। इस प्रकार देह में जो लिंग है उस लिंग सहित शरीर को आपा मानता है। प्राय: दुनिया के सभी लोग ऐसा ही मानकर एक दूसरे से व्यवहार करते हैं, बोलचाल की भाषा में भी यही अनुभव दिख रहा है। स्त्री कहेगी कि में जाती हूँ, पुरुष कहेगा कि में जाता हूँ। तो वचनालाप तक में भी वेदों का संस्कार पड़ा हुआ है। तो लिंग से संगतशरीर में आत्मबुद्धि करना यही तो मोह है। सो अज्ञानीजन स्त्रीलिंग, पुर्लिंग तथा नपुंसक लिंग आदिक रूप में इस देह को आपा मानते हैं, परंतु जो सम्यग्ज्ञानी पुरुष हैं, लिंग की संगति से रहित आत्मतत्त्व को जानते हैं।‘जहाँ देह अपनी नहीं वहाँ न अपना कोय।’ जब कि देह भी अपना नहीं जो इतना निकट साथी बन रहा है, जन्म से लेकर मरणपर्यंत जो जीव के साथ रह रहा है और कितना निकट संबंध बना हुआ है जीव का देह का, इसको ज्यादा बताने की बात नहीं है। सदा साथ रह रहा है इतने काल। जब वह देह भी अपना नहीं तो फिर अपना क्या है? अपने को अकिंचन अनुभव करना, मेरा कहीं कुछ नहीं है। हटाते जायें उपयोग बाह्य पदार्थों से, योग मारकर स्थिर बैठकर ऐसा उपयोग ले जायें, अंदर में यह भी मान रहे कि यह देह भी पड़ा हुआ है। ऐसा अत्यंत अंतरंग के उपयोग में पहुँचाने वाले ज्ञानीजन चैतन्यमात्र अपने आपके स्वरूप का अनुभव करते हैं। वहाँ ही वास्तव में आनंद है, तृप्ति भी वहाँ ही मिलती है। बाह्य पदार्थों के संचय में, धनवैभव की रखवाली में, धनवैभव के आदान-प्रदान व्यवहार में इनमें शांति कहाँ है। तृप्ति जो आत्मा में आत्मीय चैतन्यरस के अनुभव से हो सकती है। बाह्य पदार्थों को रखकर शांति तृप्ति नहीं हो सकती। जो ज्ञानी पुरुष अपने आपको देहरहित, लिंगरहित केवल चिदानंदस्वरूपमात्र अनुभव करता है वह पुरुष तत्त्ववेदी है और संसार के झंझटों से शीघ्र मुक्त होने वाला है। अनुभव करना चाहिए अपने आपका कि मैं शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ। पर्याय में सर्वोत्कृष्ट शुद्ध पर्याय हर प्रकार से है सिद्ध भगवान की। और सिद्ध का स्मरण के अनंतर ही अपने आत्मस्वभाव का स्मरण करें तो समझिये कि परमात्मदर्शन का अब लाभ पाया है। द्रव्यदृष्टि से मैं वह हूँ जो भगवानहैं, जो भगवान हैं वह मैं हूँ। पर पर्याय दृष्टि में अंतर है। प्रभु में और हममें। वे विराग हैं और यहाँ राग का फैलाव है। ज्ञानी जीव पर्यायदृष्टि का अंतर निरखने के समय में भी अपने को रागस्वभावी नहीं अनुभव करता। राग का फैलाव है पर वह मेरा स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं, औदारिक भाव है। अज्ञानी जीव स्त्रीलिंग, पुर्लिंग तथा नपुंसकलिंग रूप अपने को अनुभव करते हैं।