ज्ञानार्णव - श्लोक 1603: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
आज्ञापायविपाकानां क्रमश: संस्थितेस्तथा।
विचयो य: पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चतुर्विधम्।।1603।।
संसार के प्राणी ध्यान के बिना नहीं रहते। प्रत्येक जीव का कोई न कोई ध्यान बनाही रहता है। जिन जीवों के मन है वे तो मन के द्वारा ध्यान करते हैं और जिनके मन नहीं है, असंज्ञी जीव हैं उनकी वासना के ही द्वारा ध्यान होता रहता है। तो जो असंज्ञी जीव हैं, जैसे एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और असैनी पंचेंद्रिय, इनके मन नहीं है इसलिए ये अच्छा ध्यान नहीं कर सकते। तो मनरहित जीव के तो रौद्रध्यान और आर्तध्यान ही रह सकता है। कोई मनसहित जीव के आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान चार प्रकार के ध्यान हो सकते हैं। उनमें दो ध्यान तो आर्त और रौद्र ये संसार के कारण है, इनसे कष्ट उत्पन्न होता है। और धर्मध्यान व शुक्लध्यान ये मोक्ष के कारण हैं। उनमें से प्रथम धर्मध्यान होता है। धर्मध्यान के 4 भेद हैं―आज्ञाविचय, अपायविचय, उपायविचय, संस्थानविचय, भगवान की आज्ञा को प्रधान करके चिंतन करना सो आज्ञाविचय धर्मध्यान। जिस ज्ञानी पुरुष के आज्ञाविचय धर्मध्यान हो सो वह भगवान ने कहा है इसलिए माने सो नहीं, युक्ति भी उसके पास है, अनुभवन भी उसके पासहै लेकिन कुछ इस ध्यान में ऐसी विशेषता है कि भगवान की आज्ञा की प्रधानता हो आती है। जैसा कि 7 तत्त्वों के बारे में जो स्वरूप बताया है तो अपनी युक्ति से भी समझते हैं। जीव अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं उन 5 तत्त्वों के बनने में। यहाँ अजीव को माना कर्म। अजीव में कर्म आये सो आस्रव। आस्रव कोई अपने विरुद्ध चीज आये तो वह गड़बड़ी की कारण बनता है। जीव में अजीव बंधे सो बंध। जीव में अजीव न आये सो सम्वर। जीव में से अजीव आना कर्म निकलना सो निर्जरा और जब कर्मसमूह विनष्ट हो जाय तो मोक्ष होता है। युक्ति से भी जानते हैं कि हाँ बिल्कुल ठीक है, जीव केवल एक अकेला रहता, इसमें अभाव नहीं आता तो इसको कोई प्रकार का कष्ट न था। पर जीव के साथ विरुद्ध चीज जो अजीव की उपाधि लगी है उससे यह कष्ट में आ गया, यह अनुभव भी बताता, युक्ति भी बताता, इतने पर भी भगवान ने यह बताया है, प्रभु ने यह बताया है ऐसी प्रधानता रहती है चित्त में इसलिए उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं। अपायविचय धर्मध्यान में अपाय का चिंतन होता है और उपायविचय धर्मध्यान में उपाय का चिंतन होता है। अपाय मायने रागादिक विभाव। कब मेरे रागादिक खोटे परिणाम नष्ट हों, कब मैं विशुद्ध परिणाम में आऊँ, इसका नाम अपायविचय धर्मध्यान है। दूसरा है विपाकविचय। विपाक नाम है कर्म फल का। कर्म कैसी प्रकृति रखते हैं, उनके उदय काल में किस जीव को कर्मफल भोगना होता है, उनकी वस्तुवों का वर्णन करना, चिंतन करना विपाकविचय धर्मध्यान है। तीसरा है संस्थानविचय धर्मध्यान। इसका बहुत बड़ा विस्तार है। तीन लोग तीन काल में जो-जो बातें गुजर रही हैं, झलक रही हैं उन सबको संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं। ये चार प्रकार के धर्मध्यान सम्यग्दृष्टि पुरुष के होते हैं। वैसे वर्तमान प्रणाली में चल रहे चौबीस ठाना में बताया दूसरे गुणस्थान में। उसके उपदेश का प्रयोजन है सम्यक्त्व की प्राप्ति। उस समय इस जीव को भगवान की आज्ञा की प्रधानता हो जाती है। वस्तुत: धर्मध्यान का संबंध सम्यक्त्व के साथ है। सम्यक्त्व के बिना इस प्रकार का ध्यान करना एक प्रकार का शुभ भाव है, पुण्य बंध का हेतु है, और सम्यक्त्व के साथ इस प्रकार का ध्यान होना यह 7 वें निर्जरा तत्त्व को लिए हुए है। इन चार प्रकार के धर्मध्यानों में प्रथम जो आज्ञाविचय धर्मध्यान है, उसका वर्णन करते हैं।