वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1604
From जैनकोष
वस्तुतत्त्वं स्वसिद्धांतं प्रसिद्धं यत्र चिंतयेत्।
सर्वज्ञाज्ञाभियोगेन तदाज्ञाविचयो मत:।।1604।।
जिस धर्मध्यान में अपने सिद्धांत में प्रसिद्ध वस्तुतत्त्व का चिंतन सर्वज्ञ की आज्ञा की प्रधानता से किया जाय उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं। तत्त्व के बारे में गहराई से विचार चल रहा है, वैज्ञानिक आधार पर भी चल रहा है और सब कुछ विचार करते हुए भी बराबर उपयोग में यह बात समाया करे कि भगवान जिनेंद्रदेव की ऐसी आज्ञा है सो आज्ञाविचय धर्मध्यान बनता है। वस्तुस्वरूप कैसा है? जो वस्तु में अनादिकाल से अनंतकाल तक अपने आप अपने सत्त्व की प्रतिष्ठा रखने के लिए जो लक्षण पाया जाय उसे वस्तु स्वरूप कहते हैं। जैसे जीव का स्वरूप चेतन, एक चेतना, ज्ञानदर्शन का प्रकाश, प्रतिभास होना, यह जीवतत्त्व में ही पाया जाता है, पुद्गल में प्रतिभास में योग्यता नहीं है, चेतने की योग्यता नहीं है, इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य इनमें भी चेतना नहीं है। चेतना मात्र एक जीवतत्त्व में ही है। यह चैतन्य जीव में अनादि सिद्ध है। यह ही स्वरूप चैतन्यात्मक ही जीव है। सो वह चैतन्य यद्यपि स्वरूप में अनादिकाल से अनंतकाल तक एक रूप रहता है और पदार्थ कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें उत्पादव्यय न हो, नवीन पर्याय न आये, पुरानी पर्याय नष्ट न हो और फिर भी वस्तु रहे ऐसा कोई वस्तु नहीं। पदार्थ है कोई तो उसका उत्पाद व्यय अवश्य है। ऐसा कोई तत्त्व कल्पना में लावो तो सही कि जिसमें परिणति कुछ न हो, अवस्था कुछ न हो और वह रहे। ऐसी बात तो कल्पना में भी नहीं आ सकती। इतने पर भी कोई अविकारी, अपरिणामी तत्त्व की कल्पना करो―जैसे एक ब्रह्म है, वह अविकारी है, अगोचर है, सबसे परे है, एक स्वरूप है, उसमें कुछ परिणमन ही नहीं है ऐसी कल्पना कर लो, परंतु जब उसे परीक्षा की कसौटी पर कसते हैं तो अनुभव में ऐसी बात नहीं उतरती है कि हाँ अनुभव स्पष्ट कर दे, हाँ यह पदार्थ है। ये दृष्टि गोचर आने वाले स्कंध मायारूप हैं, ये सही इस रूप को स्वभावत: रखते हों ऐसा नहीं है। विनष्ट हो जाने वाले हैं, लेकिन नष्ट हो-हो कर भी कुछ न कुछ नई रचना बनाते रहते हैं। यह कभी नहीं हो सकता कि पदार्थ नष्ट हो जाय और वह नई रचना न बनावे। जैसे घड़ा फुट गया तो खपरियाँ बन गई। घट के फूटने का नाम खपरियों का बनना है। और वे खपरियाँ भी मानो चूर-चूर हो जायें तो रेत बन गया। रेत का उत्पाद और खपरियों का व्यय एक ही बात है। कभी यह रेत वृक्ष भी बन जाय, वृक्ष के अंकुर में आकर ये परमाणु कभी वृक्षरूप भी हो जायें तो भी परमाणु रहेंगे, चाहे इनकी कोई बदल हो। तो जो पदार्थ होते हैं उनकी बदल अवश्य होती है, परिणमन स्वयमेव चलता रहता है, तो परिणमन बिना कोई पदार्थ नहीं रहता। तो यह चैतन्यात्मक जीवतत्त्व यद्यपि एक स्वरूप हे तो भी इसमें नवीन-नवीन अवस्थाएँ बनती हैं और पुरानी-पुरानी अवस्थाएँविलीन होती जाती हैं। पुरानी होती हैं फिर भी नवीन बनती रहती हैं। तो यह चैतन्य जो सामान्यविशेषात्मक है और इसी कारण ज्ञान एवं दर्शन के रूप में विदित होता है, वह चैतन्यात्मक तत्त्व उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त है।
यद्यपि यह आत्मा उतना सूक्ष्म पदार्थ है जैसा कि आकाश। अथवा धर्म, अधर्म, काल, द्रव्य। इनकी तरह अमूर्त है, सूक्ष्म है, इंद्रिय से परे है, इतने पर भी आत्मा का जितना स्पष्ट ज्ञान अपने को हो सकता है उतना स्पष्ट ज्ञान किसी पदार्थ का नहीं हो सकता। बल्कि यों समझ लीजिए कि जिन पुद्गलों को हम आँखों से निरखते हैं और बहुत स्पष्ट समझते हैं वे भी उतना स्पष्ट नहीं हैं जितना स्पष्ट अपने आत्मा को अपने आत्मा का ज्ञान हो सकता है, पर इसके लिए थोड़ा विधि की आवश्यकता है। वह विधि हे कि सर्वप्रथम तो अपने आत्मा को आत्मा की रुचि हो। संसार के किसी भी पदार्थ में कोई सार शरण तत्त्व नहीं है। जिस पदार्थ का सहारा लेते उस ही पदार्थ की ओर से धोखा मिलता है। यहाँ किसकी शरण गहें, किसका विश्वास करें, कोई पदार्थ यहाँ ऐसा नहीं जो आत्मा को शांति उत्पन्न करा दे। बाहर में कोई भी पदार्थ हमारे हित के लायक नहीं है, अतएव बाह्य पदार्थों की उपेक्षा करें। इससे एक विशुद्ध ज्ञान की जागृति होगी और एक अद्भुत आनंद जगेगा। वही तो आत्मतत्त्व है। उस तत्त्व का अनुभव होने पर इस ज्ञानी जीव को अपने आपका आत्मा इतना स्पष्ट विदित होता है जितना स्पष्ट अन्य पदार्थ नहीं हो सकते। जिस पुद्गल को हम कहते हैं कि हमने भली प्रकार जान लिया, खूब समझ लिया वह सब परोक्ष ज्ञान है। और अपने आपके आत्मा का ज्ञान बने तो उसे स्वसम्वेदन पत्यक्ष मानें। तो ऐसा चैतन्यात्मक अंतस्तत्त्व सबसे निराला और अपने आपके परिणमन में स्वरूप में रहने वालाहै ऐसा जीवस्वरूप को जाना इस आज्ञाविचयी धर्मध्यानी पुरुष ने। परंतु साथ में ही एक ऐसा भक्तिपूर्ण वचन बना रहता है कि जितेंद्रदेव ने ऐसा कहा है, जिनेंद्रदेव की परंपरा से यह तत्त्व प्राप्त हुआ है। जिनेंद्र की आज्ञा की प्रधानता उसके उपयोग में बसी है।ऐसा भक्तिप्रधान जीव है यह।
पुद्गल के स्वरूप का जब यह ज्ञानी चिंतन करता है तो निर्णय बनाता है कि वास्तव में पुद्गल तो एक-एक अणु है। सिद्धांत में जो पुद्गल के दो भेद किए हैं परमाणु और स्कंध, यह एक स्थूल विधि से किया है। पुद्गल तो एक ही है। अथवा यों समझ लीजिए कि जैसे जीव के दो भेद बताये गए हैं―मुक्त और संसारी, तो ऐसा कहने का अभिप्राय हे शुद्ध जीव और अशुद्ध जीव। वैसे जीव के कई प्रकार न होंगे, जीव तो एक चैतन्यमात्र है फिर भी शुद्ध और अशुद्ध अवस्था बताने के लिए ये दो भेद किए गए है। इसी प्रकार पुद्गल की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था बताने के लिए दो भेद किए गए हैं―परमाणु और स्कंध। परमाणु तो शुद्ध पुद्गल है क्योंकि वह एक ही अणुमात्र है, संयोगी पदार्थ नहीं है। और स्कंध अनेक अणुवों का मिलकर बनाहै, एक रूप है, वह मायारूप है, अशुद्ध रूप है, वह बिखर सकता है। तो पुद्गल के दो भेद एक विवक्षा से किए गए हैं। वास्तव में तो पुद्गल एक अणुमात्र है। जो पदार्थअपने शुद्ध स्वरूप को तजकर अशुद्ध स्वरूप को ग्रहण करता है उस अशुद्ध स्वरूप को माया कहते हैं। माया का अर्थ है जो मिट जाय, औपाधिक रहे, और प्रकार दिखे। जैसे जीव तो वास्तव में एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है, ज्ञानदर्शनमय है, पर नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदिक रूप जो ये नजर आते हैं या बन रहे हैं ये सब माया हैं। इसी प्रकार एक परमाणु तो विशुद्ध रूप है, एकाकी है, अपने स्वरूप को लिए हुए है, पर उसका जो स्वरूप बनता है, अनेक परमाणुवों का मिलकर एक पिंड बन जाता है यह सब माया हैं, क्योंकि ये विनष्ट होंगे, और असली रूप में जैसा पुद्गल में होना चाहिए वह यह रूप नहीं है। यह औपाधिक रूप है अर्थात् यह स्कंध मायारूप कहलाता है। यह परमाणु अपने आपमें रूप, रस, गंध, स्पर्श शक्ति को लिए हुए है। अतएव वह मूर्तिक है। आत्मा अमूर्त है, पुद्गल मूर्त है। इसमें भेद डालने वाला लक्षण यह है। जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाय उसे मूर्त कहते हैं और जो रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है उसे अमूर्त कहते हैं। अब देखिये इस देह में और अपने आत्मा में कितना विशेष अंतर है, अत्यंत विलक्षण है यह देह। आत्मा चैतन्यमात्र है, ज्ञान दर्शन स्वरूप है तो यह देह जड़ है, ज्ञानदर्शन से रहित है। यह देह रूप, रस, गंध, स्पर्शवान है, मूर्तिक है और यह आत्मा अमूर्त है। अत्यंत भिन्नता है इस शरीर में और इस आत्मा में, फिर भी यह जीव इस देह को अपनाता है, अपनी मानता है। तो पुद्गल का लक्षण असाधारण जो है वह पुद्गल में अनादि से लेकर अनंतकाल तक रहता है।
यह पुद्गल अपने रूप, रस, गंध, स्पर्श स्वरूप को नहीं छोड़ता, ये मिलकर स्कंध बन जाते हैं पर यह बिछुड़बिछुड़कर कभी परमाणु भी बन जाते हैं पर वे परमाणु अपनी दृष्टि में नहीं आते हैं। एक युक्ति बता देती है कि कोई एक ढेला है उसे तोड दिया जा यतो उसके दसों टुकड़े हो गए तो वे हमारे किए से उस पर नहीं बने। किंतु उसमें से निकलकर एक अणुमात्र रह जाय तो वे रह सकते हैं लेकिन पुद्गल में अणु बन भी जाय, लेकिन वह शुद्ध होकर सदा काल शुद्ध ही बना रहे―यह बात पुद्गल में नहीं है। वह शुद्ध होकर अशुद्ध बन जाती है और इसी कारण पुद्गल की विशेषता है। उसका नाम ही पुद्गल है। जो पूरे और गले उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गल अपना यह स्वरूप नहीं छोड़ता। कभी अणु बन जाय तो भी वह अणु रूप रहे ऐसी बात नहीं निभ पाती है पर जीव में निभ जाती है, क्योंकि जीव के बंध के कारण तो रागादिक भाव हैं, सो रागादिक भावों का तो अभाव हो गया इस शुद्ध जीव के बंध का कोई कारण नहीं रहा, मगर पुद्गल में दूसरे पुद्गल के बंध का कारण पुद्गल में बंध जाने वाले स्निग्ध रूक्ष गुण हैं, वह स्निग्ध गुण पुद्गल की परिणति है। स्निग्ध में कोई परमाणु अवश्य रहेगा। अब अगुरुलघुत्व गुण के परिणमन से अथवा स्निग्ध रूक्ष गुण में भी स्वभावत: कुछ घटा बढ़ी चलती रहती है। जब दो या एक अणु का परस्पर में योग होता है तो वह फिर से स्निग्ध बन जाता है, स्कंध हो जाता है, अशुद्ध हो जाता हे तो पुद्गल शुद्ध होकर भी अशुद्ध हो जाता है किंतु जीव शुद्ध होकर अशुद्ध नहीं होता। एक बार मुक्त हुआ, अष्टकर्मों से रहित हुआ, शरीररहित केवल अनंतचतुष्टयसंपंन सदाकाल बना रहता है। यह जीव और पुद्गल विभावों में एक विशेषता है। ऐसा सब कुछ चिंतन करते हुए भी यह सम्यग्दृष्टि ज्ञानीपुरुष जिनेंद्रदेव के उपकार को नहीं भूल सकता। जिनेंद्रदेव के उपदेश का हमें सार न प्राप्त होता तो हम और जीवों की भांति अज्ञान अंधेरे में ही रहते। कुछ तो निर्णय हे, मैं सबसे निराला हूँ, मेरा कोई रक्षक, सुधारक, बिगाड़क इस संसार में नहीं है। मैं केवल अपने आपमें अपना अस्तित्त्व रखता हूँ, फिर मोह किसका, राग किसका? किसको हम अपना समझें―यह सब उसका निर्णय है? लेकिन जिनेंद्रदेव की भक्ति में फिर भी प्रधानता रखे हुए है। भगवान ने ऐसा ही तो कहा है, युक्ति से सिद्ध है, अनुभव भी है, फिर भी भगवान की आज्ञा को नहीं भूलता।
तीसरा धर्म है धर्मद्रव्य। धर्मद्रव्य के बारे में ये ज्ञानीजन कुछ युक्तियों से भी विचार कर लेते हैं कि पदार्थ गमन करते हैं तो उनके गमन करने की लाइन हुआ करती हैं। यों ही जब सहज ज्ञान होता है तो पंक्ति के अनुसार गमन होता है।आकाश प्रदेश में ऊपर से नीचे, पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण सीधी-सीधी लाइन है। उन्हें श्रेणियाँ कहते हैं। तो जब जीव अपनी पर्याय छोड़ता है, अन्य पर्याय में जाता है तो यों ही टेढ़ा न चला जायगा। अगर पूरब से मरकर उसे कुछ आगे चलकर दक्षिण में उत्पन्न होना हे तो जो सीध मिले इस तरफ न जायगा किंतु जहाँश्रेणियों की सीध मिले उस तरफ जायगा। पूरब से कुछ पश्चिम को आगे बढ़ जाता है, उत्पन्न होने योग्य जगह का सामना कर जाय, फिर पश्चिम से दक्षिण में जायगा। मुक्त जीव लोक से ऊपर जाकर विराजमान होते हैं। तो ढाई द्वीप के अंदर जिस जगह से जो मुनि मुक्त हुआ वह उस ही जगह सीधा सिद्ध भगवंत हो जाता है। यह गमनागमन का विचार धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य की सिद्धि के लिए चल रहा है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन का हेतु है सो उदीर्णा का विचार नहीं है, चाहे गोल-गोल चला जावे, चाहे सीधा, वह तो गमन का निमित्त कारण है। धर्मद्रव्य चलते हुए जीव के ठहराने का निमित्त कारण है, पर जीव पुद्गल शुद्ध होकर जब गमन करते हैं तो वे विदिशावों में भ्रमण नहीं कर पाते, किंतु नीचे से ऊपर जायें तो उसी सीध में, पूरब से पश्चिम जायें तो उसी सीध में, कुछ ऐसी रचनाएँआकाश प्रदेशों में, यद्यपि है आकाश प्रदेश पर। कुछ कल्पना के लिए ऐसा ध्यान करिये कि जैसे बहुत बारीक अत्यंत महीन कोई वस्तु हो तो उसे उसमें ताना पूरे रहते हैं, तंतुवों की एक रचना रहती है, इस तरह से अमृत आकाश में भी पूरब से पश्चिम, ऊपर से नीचे, उनमें से आकाश प्रदेश की एक पंक्ति होती है। तो शुद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल उन पंक्तियों के अनुसार गमन करता है, जो अणु एक समय में 14 राजू गमन करता है वह सीधे आकाश प्रदेशों में ही गमन करता है वह धर्मद्रव्य है। कुछ आजकल के वैज्ञानिक लोग भी ऐसी तरंग मानते हैं जिनके आधार पर गमन होता है, शब्द कहते हैं, तो यह ज्ञानी जीव धर्मद्रव्य के बारे में विचार कर लेता है तिस पर भी जिनेंद्रदेव की आज्ञा की वह प्रधानता वह चित्त में बसाये है। जिनेंद्रदेव की ऐसी आज्ञा है, उनका यह उपदेश है। ऐसे ही धर्मद्रव्य के बारे में आकाश द्रव्य के बारे में जानिये।
यह आकाशद्रव्य सर्वव्यापक है, लोक में भी है अलोक में भी है। जहाँ तक समस्त द्रव्य पाये जाते वह लोक है, उससे बाहर में आकाश अलग है, युक्ति से भी समझ रहा है कि हाँ आकाश ऐसा सर्वव्यापी होना चाहिए कि जिसका कहीं अंत न हो। उसके आगे कोई पिंडरूप चीज है, पोल नहीं रहता है, तो पिंडरूप जहाँठहरे हों उसके मायने आकाश। तो यह आकाश तत्त्व की 7 युक्तियों में विचारता है तिस पर भी आज्ञाविचय धर्मध्यानी सम्यग्दृष्टि पुरुष भगवान की आज्ञा की प्रधानता का चिंतन कर रहा है।3 कालद्रव्यहैं। कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु के रूप में है। अब देखिये कैसी प्राकृतिक बात है कि जहाँवह कालद्रव्य है वहाँ जो पदार्थ हों उनके परिणमन का कारणभूत वह काल हे इसलिए कालद्रव्य असंख्यात हुए। जिस प्रदेश पर जो पदार्थ ठहरा हुआ हो उसके परिणमन का हेतुभूत वह काल द्रव्य है। काल एक सनातन द्रव्य है, उसकी पर्याय समय और समय मिलकर सेकेंड मिनट आदि होते हैं, वह भी युक्ति में आता है। इस प्रकार समस्त द्रव्यों का स्वरूप जानकर भी यह सम्यग्ज्ञानी पुरुष सर्वज्ञदेव की आज्ञा की प्रधानता का बराबर चिंतन बनाये है कि भगवान जिनेंद्र का ऐसा उपदेश हे, वह प्रमाणभूत है। इसलिए भगवान की आज्ञा की प्रधानता से तत्त्व के स्वरूप का चिंतन करना सो आज्ञाविचय धर्मध्यान है।