ज्ञानार्णव - श्लोक 1649: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
मूलप्रकृतयस्तत्र कर्मणामष्ट कीर्तिता:।
ज्ञानावरणपूर्वास्ता जन्मिनां बंधहेतव:।।1649।।
कर्मों में मूल प्रकृतियाँ 8 हैं―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय। हमने कैसे जाना कि जीव के साथ 8 कर्म लगे हैं। हम कार्य देख रहे हैं इसलिए उनके कारण का अनुमान करते हैं। जीव में ज्ञानगुण प्रकट नहीं हो पा रहा। साधना न मिलने पर ज्ञान प्रकट नहीं हो पा रहा। एक स्कूल के 10 बच्चों को सबको याद होता है पर एक को नहीं याद होता, तो इसमें कुछ कारण होना चाहिए। जीव के स्वभाव की दृष्टि से तो यह ज्ञान ऐसा रखता है कि समस्त विश्व को स्पष्ट जान ले, लेकिन वह भी ज्ञान नहीं। यहाँ के छुटपुट ज्ञान नहीं हो पाते तो इसमें कोई विरुद्ध उपाधि लगी है उसी का नाम लोगों ने जन्म रखा, मरण रखा। ज्ञानावरण कर्म रखा, जो ज्ञानगुण को प्रकट न होने दे। दर्शनावरण कर्म जो आत्मा का दर्शन गुण न प्रकट होने दे। कोई जीव इंद्रिय के भोग उपभोग साधन खूब जुटा रहा है। मौज कर रहा हे, कोई जीव इन इंद्रियों से क्लेश पा रहे तो इससे सिद्ध है कि यह उपाधि ऐसी लगी है जिसकी वजह से सुख-दु:ख के नाना भेद पड़ गए, उस उपाधि का नाम है वेदनीय। नाम कुछ रख लो। जैसे यहाँ व्यवहार में हम चीजों का नाम रखते हैं तो ऐसा नाम रखते हैं जो जीव के स्वरूप की बात बताये। जैसे चौकी जिसमें चार कोने हों उसका नाम चौकी। तो शब्द ऐसा बोलेंगे कि जिससे उस पदार्थ की तारीफ भी तुरंत मालूम हो जाय। जैसे चटाई नाम रखा तो चट आयी सो चटाई। यों उसकी तारीफ तुरंत हो गई। तो चैतन्य कहो, जीव कहो, आत्मा कहो, ब्रह्म कहो ये सब स्वभाव से विशुद्ध आनंदस्वरूप हैं। मगर इनमें सुख-दु:ख के जो भेद पड़े हैं इनका कोई कारण होना चाहिए। वह कारण है वेदनीय कर्म। जीव अपने स्वभाव को रख नहीं पाता।अपने स्वरूप के निकट नहीं आ पाता।देखो है खुद अपने स्वरूप रूप, पर अपनेको नहीं समझ पाता। इसमें कोई कारण है वह कारण है मोहनीय का। मोहनीय कर्म का ऐसा उदय आता कि यह जीव अपना स्वरूप भूल जाता है और अपने स्वरूप को जानकर स्वरूप में मग्न हो जाना चाहिए था। मगर नहीं हो सका यह जीव। तो इसमें कुछ कारण है। जो कारण है उसका नाम है चारित्र मोहनीय कर्म। ये जीव है तो स्वतंत्र स्वरूप वाले, इनमें किसी का बंधन नहीं है। स्वभावदृष्टि को निरखियेलेकिन यह शरीर के बंधन में पड़ा रहता है। शरीर बूढ़ा हो गया, शीर्ण हो गया, अनेक उसमें सुख आते हैं मगर उस शरीर को छोडकर नहीं जा सकते। ऐसा बंधन पड़ा है, और मान लो आत्मघात करके शरीर से छुटकारा पा लिया तो इसी शरीर से ही तो पाया। अगले भव में जो नाना शरीर मिलेंगे उनसे छुटकारा ऐसे नहीं होता। तो शरीर को रोके रहना यह किसी कर्म का काम है। उस कर्म का नाम रखा आयुकर्म। किसी को कैसा शरीर मिलता, किसी को कैसा, यह सब नाम प्रकृति के उदय से होता है। और ऊँच-नीच कुल में जन्म लेना गोत्र कर्म का कारण है। दान देते समय परिणाम हो जाय खराब तो यह अंतराय कर्म है। और भोगों में उपभोगों में विघ्न आते हैं, लाभ नहीं हो पाता, भोगसाधन हैं मगर भोग नहीं सकते, ऐसा रोगी हो जाते कि वेद्य सभी चीजें खाने को मना कर देता। तो भोग भोगने में बाधा आती है ये सब अंतराय कर्म हैं। ये कर्म जीव में लगे हैं जिससे जीव दु:खी हैं। इस प्रकार कर्म विपाकविचय धर्मध्यान में यह ज्ञानी जीव नाना प्रकार के फलों का चिंतन करता है। साथ ही अपने को पृथक् निरख रहा है कि यह फल हे, पौद्गलिक है, कर्म का बंधन है। मेरे साथ तो मेरा स्वरूप है, इस प्रकार विचार करना यह कर्म विपाकविचय धर्मध्यान है। इस विपाकविचय का चिंतवन करने से कर्मों की निर्जरा होती है।