वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1648
From जैनकोष
प्रशमादिसमुद्भूतो भाव: सौख्याय देहिनाम्।
कर्मगौरवज: सोऽयं महाव्यसनमंदिरम्।।1648।।
जो कर्मों के उपशम आदिक से उत्पन्न होने वाले भाव हैं वे जीवों को सुख के लिए होते हैं और जो कर्मों के गौरव से तीव्र उदय से जो भाव उत्पन्न होता है वह महान कष्ट का भय है। कर्म बंधे हैं सबके साथ। जिन्होंने निर्मल परिणाम किया है उनके कर्म दबे।तो उस उपशम का निमित्त पाकर जो जीव में भाव होगा वह सुखरूप भाव होगा और जो कर्म के उदय से भाव होगा वह दु:खरूप होगा। अब कर्मों का उपशम करने में अपन करें क्या? कर्म दिखते हैं नहीं उन्हें फिर दबाना क्या? कैसे उपशम हो? तो हममें इतनी सामर्थ्य नहीं, ये तो अपने आप होंगे, कर्म दबेंगे, कर्म क्षीण होंगे, एक भी कर्म न रहेंगे, ये सब बातें संभव हैं, पर इसके लिए विशुद्ध परिणाम चाहिए। हम कर्मों को जानकर क्या दबाये? हमारा काम तो यह है कि अपना परिणाम निर्मल रखें, अपने परिणामों की सम्हाल रहे तो कर्मों का उपशम होगा। जैसा जो कुछ होता है भलाई के लिए वह सब सम्वेग हमारा बन सकेगा, पर अपना परिणाम विशुद्ध रखें, क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा में अपने परिणाम न फंसायें। तो मनुष्यों की जो दशायें होनी चाहिए भलाई के लिए वे सब अपने आप होंगी। जिसे कहते हैं अष्टकर्मों को ध्वस्त करना। वे कर्म कैसे ध्वस्त किए जायें, वे तो ग्रहण में ही नहीं आते। वे परपदार्थ हैं और यह आत्मा है निज पदार्थ। हम पर में क्या बना सकेंगे? कोशिश विशुद्ध परिणामों की करना चाहिए, फिर कर्मों में जो कुछ होने की आवश्यकता है सुखशांति के लिए वह सब स्वयमेव होगा।