ज्ञानार्णव - श्लोक 164: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभि:।
विरज्य जन्मन: स्वार्थे यै: शरीरं कदर्थितम्।।164।।
नरदेह प्राप्ति की सफलता के अधिकारी―इस शरीर के प्राप्त होने का फल उन्होंने ही प्राप्त किया है जिन्होंने संसार से विरक्त होकर अपने कल्याणमार्ग में पुण्यकर्मों को क्षीण किया है। यह शरीर अशुचि है, असार है, पतनोन्मुख है, अहित है, भिन्न है। तिस पर भी जो पुरुष इस शरीर से आत्मा का काम सिद्ध करते हैं। अर्थात् आत्मा की सावधानी के लिए इस शरीर से तपश्चरण करते हैं और उन पवित्र तपश्चरणों से शरीर को क्षीण करते हैं उन्होंने ऐसा शरीर पाने का फल पाया है। शेष जो लोग इस शरीर को निरखकर विषयसाधनों में ही इसे लगाते हैं और इंद्रियजंय मौजों में अपना समय गुजारते हैं उन्होंने इस दुर्लभ मानवजन्म को पाकर इसे यों ही खो दिया समझिये।
शरीर की शीर्णशीलता―शरीर तो शरीर ही है अर्थात् शीर्ण होने लगता है, कभी मिटेगा, कभी बिखरेगा यह बात सबकी निश्चित है। जन्म लेने वाले कोई भी प्राणी ऐसे नहीं है कि जिनका शरीर अमर हो, सदा रहे। शरीर का तो धर्म ही यह है कि यह जब चाहे अचानक नष्ट हो जाय। तब ऐसे नष्ट होने वाले शरीर को यदि न नष्ट होने वाले आत्मस्वभाव में लगा दें तो इसे बढ़कर शरीर का और क्या उपयोग हो सकता है? जो भोग और उपभोगों में ही रमते हैं उनका भी शरीर नष्ट होगा, बल्कि जल्दी ही नष्ट होगा। वे तो अकाल मरण का उपाय बनाते हैं।
शरीर का सत् उपयोग―शरीर को भोग उपभोग में लगाओ तो नष्ट होगा और तपश्चरण करा तो भी शरीर कभी नष्ट होगा। नष्ट तो होना ही है, पर शरीर का प्रेम बनाकर, विषयों की आसक्ति बनाकर इस शरीर को रखा तो उसमें क्या तत्त्व है? आखिर यह जीव विकारी ही बना रहा, जन्म मरण की परंपरायें ही चलाता रहा तो इससे इस जीव का लाभ क्या होगा? आत्मस्पर्श में यह उपयोग लगा ले तो यह आत्महित की बात होगी। यों इस बात के लिए इस श्लोक में प्रेरणा दी है कि इस असार शरीर से सारभूत आत्मा का काम निकाल लो।