वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 165
From जैनकोष
शरीरमेतदादाय त्वया दु:खं विसह्यते।
जन्मन्यस्मिस्ततस्तद्धि नि:शेषानर्थमंदिरम्।।165।।
मानसिक दु:खों का कारण शरीरसंबंध―हे आत्मन् ! इस संसार में तूने इन शरीरों को ग्रहण करके दु:ख पाये हैं अथवा सहे हैं, इससे तू निश्चय कर कि यह शरीर समर्थ अनर्थों का घर है। इस शरीर के संसर्ग से सुख का लेश भी नहीं हो सकता। खूब विचार लो, जितने प्रकार के क्लेश हैं वे सब इस शरीर के संबंध से हैं। मानसिक दु:ख हों तो शरीर का संबंध है तब ही तो मानसिक क्लेश चलेंगे, बिना शरीर के मन टिका कैसे रह सकता है? मन तो शरीर का अंत:द्रव्य है। अंत: में जो एक विकल्प बनता है उसे विकल्प से जो क्लेश मिलते हैं उन क्लेशों का कारण यह शरीर ही तो हुआ। प्रकट बहुत सी चिंताएँ इस शरीर के कारण हैं। किसी को धन बढ़ाने की चिंता है तो इसी कारण है कि शरीर में उसका प्रत्यय है, लगाव है और इस शरीर के अस्तित्व से अपना अस्तित्व समझता है। दुनिया में इस शरीर की मूर्ति को ही आपा मानकर इसका यश कराना चाहते हैं, इन सब विडंबनाओं के फल में धन अर्जित करने की चिंता लग जाती है और इसी से यश आदि की चिंता और इसी से अपमान सम्मान मानने का ढंग सारे क्षोभ इस शरीर के संबंध से ही तो हुए।
मर्मभेदी वचनों के दु:ख कारण का शरीरसंबंध―वाचनिक दु:ख की बात देखो―किसी ने दुर्वचन बोल दिया तो इस आत्मा को वे असह्य हो गए। यह भी बात शरीर को अपनाया तभी बनी कल्पना उठ गई कि इसने मुझे दुर्वचन बोला। अरे जो मैं हूँ परमार्थ से, वास्तविक मायने में वह तो अमूर्त है, उसमें तो वचन प्रवेश ही नहीं करते, वह तो सबसे अपरिचित है, वहाँ कहाँ वचनों का प्रवेश है? वचनों का प्रवेश तो इस मोही जीव ने अपनी कल्पना में माना, उस मोही ने ही, जो कि इन शरीरधारियों से ममत्व रखता है। उसने मुझे यों कहा ऐसा मानने में उसने अपनी आत्मा को नहीं माना, किंतु असमानजातीय द्रव्यपर्याय की इस शरीर की मुद्रा तभी बनी कल्पना उठ गई कि इसने मुझे दुर्वचन बोला। अरे जो मैं हूँ परमार्थ से वास्तविक मायने में वह तो अमूर्त है, उसमें जो वचन प्रवेश ही नहीं करते वह तो सबसे अपरिचित कहाँ-कहाँ वचनों का प्रवेश है? वचनों का प्रवेश तो इस मोही जीव ने अपनी कल्पना में माना उस मोही ने ही, जो कि इस शरीरधारियों से ममत्व रखता है। उसने मुझे यों कहा मानने में उसने अपनी आत्मा को नहीं माना किंतु असमानजातीय द्रव्य पर्याय की इस शरीर की मुद्रा को निरखकर यह मोही मान रहा है कि मैं यह हूँ। ऐसा जब शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो वे वचन लगने लगे और यह मानसिक दु:खों का विस्तार बन गया। जब कभी परस्पर में तीव्र कलह हो गया, उस कलह में दोनों ही ओर से बड़े तीक्ष्ण वचन बोले जाते हैं मर्मभेदी। वे वचन तभी तो बोले जा रहे हैं जब कि एक दूसरे को इस शरीररूप में ही समझ रहे हैं और अपने को शरीररूप में समझ रहा है वह वाचक। जो जितने विवाद हैं, दु:ख हैं वे सब ही इस शरीर के संबंध के कारण हो रहे हैं।
शारीरिक दु:खों का कारण शरीरसंबंध―शारीरिक जितने क्लेश हैं, रोग हुआ, भूख प्यास लगी, कठोर स्थान सोने को मिला अथवा रहने का स्थान बढ़िया नहीं है, डांस मच्छर काट रहे हैं आदिक जो शरीर-संबंधी क्लेश होते हैं उन क्लेशों का कारण भी तो यह शरीर ही रहा। शरीर न हो तो किसी भी प्रकार से भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदिक के क्लेश नहीं रह सकते हैं। यद्यपि शरीर आत्मा का धर्म नहीं, स्वभाव नहीं, परिणमन नहीं किंतु अनादिकाल से मोहमलीमस इस आत्मा में जो कर्मों का और विभावों का निमित्तनैमित्तिक संबंध चला आ रहा है उस संबंधों से अवरुद्ध होकर यह जीव विडंबनाओं को धारण कर रहा है। शारीरिक समस्त क्लेशों का मूल भी यह शरीर है। यों सर्वप्रकार के क्लेश जो सहे गए हैं उन सबका कारण शरीर ही है, तभी यह सिद्ध हुआ कि समस्त अनर्थों का घर यह शरीर है।
मोह में ऐब की वृद्धि के लिये चतुराई का प्रयोग―देहधारियों के आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये सब ऐब लग रहे हैं। ये सब ऐब सभी में पाये जाते हैं, पर एक आश्चर्य की बात तो देखिये―जो जितना चतुर, बुद्धिमान, विद्यावान बन जाता है वह यदि मोह से मलीमस हो जाता है तो उसकी वह विद्या विकास, ये सब चतुराईयाँ अनर्थ को ही बढ़ाने वाली बन जाती हैं। सुलझाने के लिए यह विद्या समर्थ नहीं हो पाती है, प्रत्युत उलझाती ही है। सो अनुभव करके भी देख लो, जितना-जितना अधिक किसी विद्या का विकास होता है, किसी विषय में एक चतुराई बढ़ गयी तो उस चतुराई का उपयोग यह जीव अलंकारिक ढंग से विषयों के भोग में किया जाता है।
आहार और भय संज्ञा की विडंबना में मोही मानवों की पशुओं से अग्रता―भैया ! जरा तुलना करके देख लो कि यह मनुष्य इन बातों में पशुओं से भी गया बीता बन जाता है। पशु का पेट भरा हो तो कुछ भी डालो खाने के लिए उस ओर वह देखता तक भी नहीं है, किंतु मनुष्य भरपेट भोजन करके भी आया हो, पर कहीं कोई रसीली चाट मिठाई कुछ चीज मिल जाय तो तोला दो तोला खाने के लिए तो जगह सदैव बनी ही रहती है। पेट में भी जगह नहीं है तो मुंह में रखकर उसका स्वाद लेने के लिए कौन रोकता है, चलो स्वाद ही आता रहेगा और पान इलायची तो जब चाहे खाता रहता है पेट भरा होने पर भी। इसकी आहार संज्ञा बड़ी गजब की हो रही है। डर की बात देखो तो पशु को इतना डर नहीं है। मान लो आजकल बड़े देश कलह हो रहे हैं, दूसरे देश हमलावर बन रहे हैं, ऐसे हमलों में आपको गाय और बछिया की क्या चिंता? कुछ गड़बड़ हो जाय, प्राण चले जायें तो चले जायें पर कुछ चिंता नहीं है, और इस मनुष्य को बड़ी चिंताएँ लग रही हैं। पशुओं पर कोई लाठी लेकर ही आ जाय, कोई मारने आ जाय तो उनको भय उत्पन्न होता है अन्यथा वे जहाँ हैं वहाँ ही निर्भय बने रहते हैं। भयसंज्ञा से भी यह मनुष्य जितना जो चतुर है उतना ही अपना भय बढ़ाये हुए है।
मैथुन और परिग्रह संज्ञा की विडंबना में मोही मानवों की पशुओं से अग्रता―मैथुन संज्ञा की बात भी बड़ी गजब की है। पशुओं में भी उनकी ऋतुएँ हैं मैथुन की, पर मनुष्य को कोई ऋतुओं का विचार नहीं। बहुत ही जब तीव्र वेदना होती है कामविषयक तभी ये पशु मैथुनसंज्ञा में प्रवृत्त होते हैं, पर यह मनुष्य बना बनाकर, चाह चाहकर इच्छायें बढ़ाता है और उन संज्ञाओं में लगता है। परिग्रह संज्ञा की बात भी बड़ी विचित्र है। सभी लोग जानते हैं। पशुओं के कहाँ कोई परिग्रह है, कहीं किसी पशु को अपने खाने के लिए कुछ संग्रह करके रखते हुए देखा है? अरे वे पशु कुछ भी जोड़कर नहीं रखते, जब जैसा जिस जगह मिल गया खा लिया। एक प्रवृत्ति की बात कह रहे हैं, कहीं इसका यह अर्थ नहीं है कि तब तो इस स्थिति में पशु मनुष्यों से अच्छे है। अरे चाहे पशु हो, मनुष्य हो, जितने अंशों में इच्छावों का निरोध है उतना ही वह संतुष्ट है और सुखी है। पर बाहरी बातें जो कि हमारे विभावों के आश्रय स्थान बनते हैं उनकी बात कहा जा रही है। देख लो ऊपर से इन परिग्रहों की दृष्टि से ये मनुष्य पशुओं से कहीं अधिक हानि में पड़ रहे हैं। कितने महल खड़े किये, कितना वैभव जोड़ा लखपति हुए तो करोड़पति की चाह। करोड़पति हुए तो अरबपति की चाह और उस चाह की पूर्ति में अन्याय हो, कुछ हो, जिस चाहे तरह से लगे रहना, ये सब बातें मनुष्यों में देखी जा रही हैं।
निद्रा में, मनुष्यों की पशुओं से अग्रता―यह तो संज्ञाओं की बात कही है। एक निद्रा की बात इससे अलग और बढ़कर है। निद्रा में भी यह मनुष्य पशुओं से, पक्षियों से अधिक हानि में है। बरात के बाजे भी बजकर निकल जायें तो भी कहो किसी-किसी मनुष्य की नींद न खुले, पता ही नहीं पड़ता, किंतु कुत्ता, बिल्ली, गाय, घोड़ा सभी पशुओं की बात देख लो, जरासी आहट होने पर तुरंत आँखें खुल जाती हैं। कोई दबे पैर भी उन सोये हुए जानवरों के पास से निकल जाये, इतने में ही आँखें खुल जाती हैं।
मनुष्य की महत्ता का कारण―किस बात से यह मनुष्य बड़ा है इन पशुओं से सो तो बताओ? एक धर्मपालन में यह मनुष्य बड़ा है मनुष्य संयम पाल सकता है और ऊहापोहात्मक तत्त्वज्ञान में भी बढ़ सकता है, अतएव मनुष्य उत्कृष्ट है। जिस दिशा में मनुष्य उत्कृष्ट है, ऊँचा है उस दिशा में मनुष्य का प्रयत्न नहीं होता, फिर मनुष्य का मनुष्यपना रहा ही क्या? मुख्य काम तो है अपना अपने आत्मा का हित करना, शरीर पोषण का नहीं। शरीर तो भव-भव में मिला। समस्त कष्टों का, समस्त अनर्थों का मूल यह शरीर है। इसके संबंध में सुख का लेश भी कभी हो नहीं सकता। इससे विरक्ति हो, उपेक्षा जगे और अपने आपके स्वरूप में मग्नता हो तो यह नरजन्म पाना सफल है, अन्यथा जैसे अनंतभव धारण किये और छोड़े, उसी तरह से यह भव भी व्यर्थ में गंवा दिया तो फिर क्या लाभ मिला? जो इस शरीर से आत्महित की बात कर सके वह है विवेकी बुद्धिमान् और जो पहिली आदतों के ही माफिक शरीर को भोगों में ही जुटाये तो उसका यह दुर्लभ नरजन्म पाना बिल्कुल निष्फल है।