ज्ञानार्णव - श्लोक 1652: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
वेदनीयं विदु: प्राज्ञा द्विधा कर्म शरीररिणाम्।
यन्मधूच्छिष्टतद्वयक्त―शस्त्रधारासमप्रभम्।।1652।।
इस जीव के साथ जो 8 प्रकार के कर्म लगे हैं उनमें से तीसरा वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म न तो पूरे तौर से अघातिया कर्म है। या यों कह लेना चाहिए कि वेदनीय कर्म घातिया की तरह भी काम करता है। वेदनीय कर्म के उदय से दो प्रकार की बातें होती हैं―एक तो सुख-दु:ख के हेतुभूत सामग्री का मिलना यह तो हुआ अघातिया काम और एक है इंद्रियद्वार से सुख अथवा दु:खरूप वेदन करना यह हुआ घातिया कर्म की तरह का काम। जो आत्मा के गुणों पर प्रहार करे वह तो है घातिया कर्म और जो आत्मा के गुणों पर प्रहार तो न करे, किंतु घातिया कर्म जैसा फल दे सकें उस प्रकार से बाह्य साधन मिलाहै वह अघातिया कर्म का काम। वेदनीय कर्म दो तरह का है―एक साता दूसरा असाता। साता वेदनीय के उदय से इंद्रिय द्वारा सुख का वेदन होता है और साता वेदनीय के उदय से इंद्रिय द्वारा असाता का उदय होता है। इसके लिए दृष्टांत दिया गया है कि जैसे शहद लिपटी तलवार की धार को कोई चाटें तो उसमें कुछ सुख है और बाद में दु:ख है। साता वेदनीय के उदय से किंचित सुख होता है किंतु यह सुख क्षोभ से भरा हुआ है, क्योंकि वह बाह्यसाधन का आश्रय करके सुख माना गया है। इस साता वेदनीय का उदय हो, शरीर की इंद्रियाँ सब सही काम करने वाली हों, उन इंद्रियों में बल भी हो, साथ में इच्छा हो और बाह्य साधन मिले अनुकूल। इतनी बातें बनने पर किंचित सुख होता है। तो जो सुख इतना पराधीन है उस पराधीन सुख में क्षोभ ही भरा हुआ है, शांति नहीं बसी है। लेकिन संसारी जीव चाहते हैं, उनकी कल्पना के अनुसार साता वेदनीय के उदय से सुख हुआ, असाता वेदनीय के उदय से दु:ख हुआ। दु:ख के साधन जुटाते हैं इसमें तो आकुलताएँ ही आकुलताएँ बसी हैं। 9 वेदनीय कर्म परमार्थ से तो जीव की आकुलता के कारणभूत हैं और संसारी जीवों की घात के अनुसार साता वेदनीय तो सुख देने वालाहै और असाता वेदनीय दु:ख स्वरूप वाला है। यद्यपि कोई भी कर्म इस अपनी परिणति को आत्मा में नहीं देता इसलिए ये कर्म आत्मा को कुछ भी नहीं देते। वेदनीय कर्म भी केवल अपनी स्थिति अनुभाग में रहते हैं। रूपरसगंधस्पर्शरूप परिणमता है, आत्मा में कुछ नहीं करता, पर बंधन है ऐसा। निमित्तनैमित्तिक संबंध है ऐसा कि वेदनीय कर्म के अनुदय के काल में यह जीव स्वयं सुख अथवा दु:खरूप वेदन करता है। यों निमित्त दृष्टि की मुख्यता से यों कहा जायगा कि साता वेदनीय उसे कहते हैं जो जीवों के सुखस्वरूप हो और असाता वेदनीय उसे कहते हैं जो जीवों को दु:ख दे। अब आगे यह बतला रहे हे कि ये सुख दु:ख किस-किस आश्रयों को पाकर होते हैं?