वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1653
From जैनकोष
सुरोरगनराधीशसेवितं श्रयते सुखम्।
सातोदयवशात्प्राणी संकल्पानंतरोद्भवम्।।1653।।
यह प्राणी साता वेदनीय के उदय से तो देवेंद्र, नागेंद्र, धरणेंद्र, आदिक ऐसे सुखों को प्राप्त हो जाते हैं जो एक संकल्पमात्र करने से तुरंत हाजिर होता है। यह साता वेदनीय के उदय का प्रभाव बताया गया है। साता वेदनीय के उदय के अधिकारी है तीर्थंकर, चक्रवर्ती ये साता वेदनीय के उदय के मुख्य आश्रय हैं। यद्यपि ऐसा कभी भी संभव नहीं है चाहे तीर्थंकर भी क्यों न हों कि जिस काल में जो इच्छा जगे उसी काल में इच्छा की बात तुरंत हो जाय। वस्तुस्वरूप ऐसा है, सिद्धांत ऐसा हे कि इच्छा के काल में भोग नहीं होता क्योंकि जिसकी इच्छा की जा रही है वह चीज उसी समय यदि सामने है तो उसके इच्छा का भाव ही नहीं होता है। जैसे किसी की इच्छा है कि 500) की आज आय बने, कभी और सामने 500) की आय तुरंत हो रही हो तो कौन इच्छा करेगा कि 500) की आय हो? वह परिणति नहीं बनती, और यदि बनाये यह तो दूसरे 500) की इच्छा का भाव बनेगा जो इस समय मौजूद नहीं है। यदि चीज सामने हो भोग का साधन तो उसकी इच्छा नहीं होती है। वहाँ तो भोगों का परिणाम रहता है। एक वेदन ही रहता है। और जिस काल में जो इच्छा की जा रही है, इच्छा में जो बात बसायी जा रही है उस इच्छा के भाव के समय में वह चीज हाजिर नहीं है। तो ऐसा कोई पुण्यवान पुरुष नहीं है संसार में कि इच्छा के समय में ही भोग प्राप्त हो। इच्छा का समय और है भोग का समय उसके बाद का है। लेकिन बहुत ही जल्दी भोग के साधन जहाँइच्छा करके मिल जायें तो वहाँ यों ही कहा जायगा कि यह ऐसा पुण्यवान जीव है कि इच्छा करते ही ये सब सुख प्राप्त हो जाते हैं। एक पुण्य का माहात्म्य दिखाने के लिए यों कहा गया है ऐसी पुण्यवान जीवों में प्रसिद्धि है, असंख्याते देव, देवेंद्र जिनकी सेवा करते हैं सब जिनके हुक्म में रहते हैं। यही देख लो, कोई राजा महाराजा हो तो उसके साथ कितना ठाठ रहता है और उसकी इच्छा की पूर्ति के कितने साधन साथ लगे रहते हैं, तो जब यहाँ मनुष्यों में ही एक विशिष्ट ठाठ देखा जाता है जो असंख्यात देवों के द्वारा सेविन इंद्र हैं, जिनके अनेक वैभव हैं और जिनके खाने-पीने का भी कोई दु:ख नहीं है, न साधन जुटाने पड़ते हैं क्योंकि उनके कवलाहार है ही नहीं, इच्छा करते ही कंठ से अमृत झरता है और तृप्त हो जाते हैं, ऐसे बड़े सुख के धनी धरणेंद्र, नागेंद्र, देवेंद्र आदि और मनुष्यों में चक्रवर्ती जो साधारण जनों में न पाये जायें ऐसे होते हैं, और तीर्थंकर को ले लीजिए। जब तक उनके बीच रहते हैं तब तक तपश्चरण नहीं किया, यों ही गृहस्थावस्था में रहते हैं, उस काल में तीर्थंकर जो कुछ भी इच्छा करते हैं, इंद्र उनकी सेवा में रहते हैं और तृष्णा की पूर्ति करते हैं लेकिन इन सब महान पुण्यवान आत्मावों के भी इच्छा के काल में भोग प्राप्त नहीं होते लेकिन फिर भी देखो साता वेदनीय कितना प्रबल है, कितना औपाधिक कार्य है कि संसारमें ऐसे बड़े-बड़े सुख भोग इच्छा करते ही प्राप्त हो जाते हैं, ऐसा सब कथन जानकर अज्ञानी तो मन में चाह बढ़ा लेगा कि ऐसा ही वैभव प्राप्त हो, ऐसा ही पद मिले, लेकिन ज्ञानी जानता हे कि इन सब सुखों से शांति नहीं है बल्कि अशांति मिलेगी। कितना शारीरिक दु:ख है, कितना बाह्यसाधनों की कमी में हैरानी है कि ऐसा कोई दु:ख आ जाय तो उस दु:ख में ज्ञानी पुरुष शांति धारण कर सकता है। और करने वाले ज्ञानी सुख में भी कर सकते हैं, मगर प्राय: करके इन सुखों की प्राप्ति के समय में जीव को शांति नहीं मिलती, तृष्णा लगी रहती है और तृष्णा के कारण वर्तमान में मिले हुए भोग भी नहीं भोगे जा सकते। आगे की धुन लगी हुई है इसलिए वहाँ अशांति ही मिलती है। ऐसा साता वेदनीय कर्म इस जीव के साथ लगा है इसे यों कह लीजिए कि तृष्णा बढ़ाने के लिए साता वेदनीय का बड़ा सहयोग है।गरीब आदमी जंगल में रहने वाले भील आदिक यदि तृष्णा करेंगे तो 100, 50 रुपये की करेंगे, उनके यह इच्छा न बनेगी कि मैं करोड़पति बन जाऊँ अथवा राजा बन जाऊँ, पर एक पुण्यवान पुरुष जो अपने गद्दे तक्के पर बैठा ही बैठा लाखों रुपयों की आय का हिसाब रखता है उसके तृष्णा बढ़ेगी तो करोड़ों, अरबों पर दृष्टि जायगी। तो साता वेदनीय का उदय तृष्णा बढ़ाने में बहुत सहयोग देता है। और जीव को दु:ख है केवल तृष्णा का। संतोष नहीं है इसलिए दु:खी है। प्रत्येक मनुष्य को देखो चाहे राजा हो, चाहे रंक, सभी संतोष न होने के कारण दु:खी हैं। जो रोज-रोज रोटी मांगते हैं। रोटी मिल भी जाती है फिर भी उन्हें धैर्य नहीं हे कि चलो आज रोटी खा ली, कल फिर मांगकर खा लेंगे। तो यों साता वेदनीय का उदय जीव के लिए हितकारी नहीं है। दूसरा है असाता वेदनीय का उदय। अब उसके विषय में सुनिये।