ज्ञानार्णव - श्लोक 1725: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
चक्षुरुन्मेषमात्रस्य सुखस्यार्थे कृतं मया ।
तत्पापं येन संपन्ना अनंता दुःखराशय: ।। 1725 ।।
उन्मेषमात्र सुख के लिये किये गये पाप के संताप का चित्रण―लोक के वर्णन में अधोलोक की रचनाएँ बतायी जा रही हैं । अधोलोक में सात नरक हैं । उन नरकों में रहने वाला नारकी जीव ऐसा विचार करता है कि मैंने पूर्व भव में केवल इतने समय के सुख के लिए जैसे नेत्र के टिकारने में जितना समय लगता है उतने समय के सुख के लिए इंद्रिय विषयों के आनंद के लिए जो पाप किया उस पाप के फल में यह बहुत अनंत दुःखों की राशि उत्पन्न की है याने विषय सुखों के थोड़े से समय के लिए जो पाप किया, जो घमंड बनाया, जो परदृष्टियां कीं, जो छल अन्याय किया, उनके फल में अब ये नरक में अनंते दुःख भोगने पड़ रहे हैं―ऐसा यह नारकी जीव विचार कर रहा है । सो नारकियों में जो कोई विवेकी हो सो ही ऐसा विचार कर सकता है बाकी तो अज्ञानी नारकी मरने मारने में ही अपना समय गंवाते हैं ।