वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1724
From जैनकोष
तत्कुर्वंत्यधमा: कर्म जिह्वोपस्थादिदंडिता: ।
येन श्वभ्रेषु पच्यंते कृतार्तकरुणस्वरा: ।। 1724। ।
नारकियों के आर्तस्वरता का चित्रण―फिर नारकी जीव ऐसा विचार करता है कि जो अधम पुरुष जिह्वा और स्पर्शन इंद्रिय से दंडित होते हैं वे ऐसे कर्म करते हैं जिसके उदय से वे नरक में उत्पन्न होते, पकाये जाते हैं रोते हैं, चीत्कार शब्द करते हैं, नाना व्याधियां सहते हैं । देखिये पंचेंद्रिय के विषयों में घ्राण इंद्रिय का विषय उतना प्रबल नहीं जितना कि स्पर्शन और रसना इंद्रिय का विषय प्रबल है, इसी प्रकार चक्षु और श्रोत्र इंद्रिय के विषय भी उतने प्रबल नहीं हैं जितने कि स्पर्शन और रसना इंद्रिय के विषय हैं । स्पर्शन और रसना―इन दो इंद्रियों में ये संसारी जीव अधिक आसक्त रहते हैं । जहाँ स्वाद चखने की लालसा जीव में लगी हुई हो, वहाँ अपने धर्म कर्म की कहाँ सुधि रहती है? मैं एक चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व हूं, अमूर्त हूँ, निर्लेप हूँ, इस प्रकार की भावना उसे कहाँ हो सकती 'है जो. रसास्वादन में मस्त है । इसी तरह जब विषयभोग भोगे जा रहे हों उस समय कहाँ अपने अमूर्त आत्मतत्त्व की सुधि होती है? इन अशुभ कर्मों के कारण इस जीव को नरकों में जन्म लेकर घोर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं । हम आप सबको यह शिक्षा लेनी है किं इन विषयों के साधन बनाये रहने से इस आत्मा का कुछ भी हित नहीं है । विषयों की प्रीति से लाभ कुछ नहीं होता, अंत में पछतावा ही होता है । यह समय गुजर जायगा । यह अमूल्य जीवन फिर मिलना कठिन हो जायगा । इन विषय साधनों से प्रीति तजें, उन्हें असार अहितकर धोखामयी समझें, उन्हें अपने चित्त से हटा दें । ऐसी बात यदि किसी भी क्षण बन सके तो अपने आप में एक ऐसा अद्भुत आनंद प्रकट होगा जो आनंद परमात्मा के होता है । उसका आंशिक अनुभव कर लेंगे और तब समझ जायेंगे कि आत्मा का असली स्वरूप यह है, उसे दृष्टि में रखना सो धर्म का पालन है, और यह धर्मपालन ही हम आपका उद्धार करने में समर्थ है ।