ज्ञानार्णव - श्लोक 1728: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
पातयित्वा महाघोरे मां श्वभ्रेऽचिंत्यवेदने ।
क्व गतास्तेऽधुना पापा मद्वित्तफलभोगिन: ।।1728।।
वित्तफलभोगियों के स्वार्थपरत्वविषयक आक्रंदन―नारकी सोचता है कि मैंने अन्याय कर के धन कमाया, अब उस धन का जिन जिनने उपभोग किया वे आज मुझे इन महाघोर नरकों में पटककर कहाँ गए? वे तो यहाँ कोई दिखते ही नहीं । जो कुटुंबी जन मेरे उपार्जित किए हुए धन के फल को भोग रहे थे वे पापी मुझे इन घोर नरकों में डालकर अब यहाँ दिखते भी नहीं, कहाँ चले गए, वे हमारे इस दुःख में कोई साथी नहीं हो रहे हैं, और है सही बात, यहाँ जितने लोग घर में आकर इकट्ठे हुए हैं―कुछ पता तो नहीं कि कौन कहाँ था, कौन किस गति से आया, क्या संबंध था, कुछ भी तो नहीं पता, अटपट कही से आकर यहाँ पैदा हो गए । अनंत जीव हैं, उनमें से कोई जीव अपने घर उत्पन्न हो गया, कोई यह हिसाब तो नहीं कि इस जीव को इस घर में ही आना था और यह मेरा कुछ लग रहा है । इस जीव में ऐसी मोह की आदत पड़ी है कि जो आ गया अपने घर उसी से यह जीव मोह कर बैठता है । तो यों यह जीव चेतन अचेतन परिग्रहों में मूर्छा रखता है और उसके फल में नरकों में जन्म लेता है । तो जिन कुटुंबियों से बड़ी प्रीति रखा, जिनसे अपना बड़प्पन माना, जो मेरे लिए सर्वस्व थे, जिनका खूब ध्यान लगाया, जिनके लिए ही प्राण थे, जिनके लिए ही सर्वस्व था वे आज कोई मेरे साथी नहीं हुए, उन पाप कर्मों का फल मुझे अकेले भोगना पड़ रहा है ।