वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1727
From जैनकोष
परिग्रह महाग्राह संग्रस्तेन्नस्तचेतसा ।
न दृष्टा यमशार्दूलचपेटा जीवनाशिनी ।। 1727 ।।
परिग्रह पाप के संताप का चित्रण―अधोलोक में उत्पन्न हुआ नारकी जो कोई विवेकी है वह
ऐसा विचार करता है कि परिग्रहरूपी महादाह से पीड़ित होकर मैंने इस यम की चपेट को नहीं देखा
अर्थात् परिग्रहों में इतना आसक्त रहा कि उसकी धुन में सारा जीवन खोया और अंत में मरण करना पड़ा । परिग्रहों में आसक्त होकर निरंतर पाप ही कर रहा है । सूत्र जी में बताया है कि जो बहुत आरंभ परिग्रह रखता है उसे नरक आयु का बंध होता है । बहुत-बहुत अपने काम-काज बढ़ाना, दुकान मिल आदिक बढ़ाना यह तो आरंभ है और परिग्रह नाम मूर्छा का है । जो जितना परिग्रह रखता है प्राय: उसको उतनी मूर्छा लगी रहती है । जहाँ परपदार्थ में ममता का परिणाम हो उसका नाम परिग्रह है । कहो 6 खंड की विभूति है और मूर्छा बिल्कुल न हो । जो यह जानता है कि ये सब बाहरी चीजें हैं, पुण्य के अनुसार आती हैं, उसकी उपेक्षा करना है । जिसे यह ज्ञान है कि ये सब बाह्य वस्तु हैं, इनसे मेरा कोई संपर्क नहीं है, मैं आत्मा इन परिग्रहों से निराला हूँ, कोई मेरा स्वामी नहीं, मैं अपने सत से परिपूर्ण हूँ और ये बाहरी स्कंध हैं, परिग्रह हैं, इनसे मेरा कोई संपर्क नहीं, ऐसा जो जानता है वह बड़ी विभूति पाकर भी उससे उपेक्षा भाव रखता है । इस वैभव की उपेक्षा करने से कहीं वह वैभव घटता नहीं है और कहो बढ़ जाय । जितनी माया से उपेक्षा रखो उतनी ही आती है और जितना माया की ओर अपन जायें उतनी ही माया दूर होती है । तो जो उपेक्षा रखता है उसके पुण्य रस बढ़ता है, वैभव कम नहीं होता है । तो 6 खंड की विभूति वाला पुरुष भी यदि ज्ञानी है, अंतरंग से मूर्छा परिणाम नहीं रखता है तो वह निष्परिग्रह ही कहा गया है, ओर कोई भिखारी ही क्यों न हो, जो कुछ भी उसके पास है उसमें यदि उसे मूर्छा है तो वह परिग्रही है और वह नरक गति में जन्म लेगा । नरक गति में जन्म लेने के मुख्य दो कारण हैं―एक तो बहुत आरंभ करना और दूसरा बहुत परिग्रह रखना । मूर्छा रखे तो इस परिणाम के फल में नरकगति का बंध होता है और वहाँ के घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं ।