ज्ञानार्णव - श्लोक 1741: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
परमांसानि यै: पापैर्भक्षितान्यतिनिर्दयै:।
शूलापक्वानि मांसानि तेषां खादंति नारका:।।1741।।
मांसभक्षण का फल―जिन पापी प्राणियों ने मनुष्यभव में निर्दय होकर दूसरे जीवों का मांस खाया है वे पापी मनुष्य मरकर नारकी होते हैं तो उनके शरीर के मांस के भी खंड पका-पकाकर नारकी जीव खाते हैं । यह सब एक दु:ख की यातना बताने का वर्णन है । नारकी जीवों को खाने को कुछ नहीं मिलता है जिससे उनकी तृषा शांत हो जाय और चेष्टा करते हैं वे दूसरे के शरीर के खंड-खंड पकाकर खाने की, मगर वह सब एक वैक्रियक स्कंध है, वहाँ उनकी क्षुधा शांत नहीं होती । वे नारकी जीव ऐसी याद दिला दिलाकर कि तूने पूर्वभव में जीवों का मांस खाया है, तुझे मांस खाने का बड़ा शौक है इसलिए लें अब तू अपना ही शरीर का मांस खा, यों कहकर उस नारकी के शरीर के खंड-खंड कर के पका करके उस ही नारकी के मुख में डालते हैं और दूसरे नारकी भी एक अपना दिल बहलाने को दूसरे के शरीर के मांस के टुकड़ों को पका-पकाकर खाते हैं । उनके शरीर में यद्यपि मांस नहीं होता मनुष्य और तिर्यंचों की तरह, लेकिन नारकियों का वैक्रियक शरीर देवों के वैक्रियक शरीर के समान नहीं है । नारकियों के शरीर में दुःख जैसे उत्पन्न होता उस तरह मनुष्यों के शरीर की बनावट के माफिक कुछ अंश होता है । जो लोग यहाँ मांस खाते हैं उनकी कितनी बेसुधी और भूल है? उनके चित्त में रंच भी यह बात नहीं आती कि दूसरे जीव भी इस प्रकार तड़फ-तड़फकर मरते हैं जिनका कि मांस खाया जा रहा है, जरा भी दया उनके चित्त में नहीं है । यदि दया आ जाय तो फिर मांस कहाँ खा सकते हैं? ऐसे निर्दय जीव नरक में उत्पन्न होते हैं और नाना दुःख भोगते हैं ।