वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1740
From जैनकोष
बलाद्विदीर्य संदृशैर्वदन क्षिप्यते क्षणात्।
विलीनं प्रज्ज्वलत्ताम्रं यै: पीतं मद्यमुद्धतै:।।1740।।
नरकों में मदिरापान का फल―पूर्वभव में जिन जीवों ने मद्यपान किया था उद्धत होकर वे जीव मरकर नरकों में उत्पन्न होते हैं तो दूसरे नारकी जीव मायामयी नारकी के मुख को संडासी से फाड़ फाड़कर पिघलाये हुए तांबे को पिलाते हैं, लो तुम्हें मद्य बहुत अच्छा लगता था, अब खूब पी लो । शराब पीना, मांस खाना यह कितना खोटा आचरण है । इसको हम आप यों समझते हैं कि उससे बहुत दूर रहें, उसे देखना भी नहीं चाहते, और जो मद्यपान करते हैं उन्हें कितना ही समझावो कि न पियो मगर वे यही कहेंगे कि उससे हमें बड़ा विश्राम मिलता है, बड़ी नींद आती है । अरे इस शरीर को विश्राम देने की जिसकी भावना बनी, शरीर को ही जो यह मैं आत्मा हूँ ऐसी जिसकी मिथ्याबुद्धि लगी हुई है वह ब्रह्म के मर्म को क्या जाने, और उस मद्यपान के फल में नरक में जन्म लेना पड़ता है, इसलिए नहीं कि पिया था इसलिए पिलाते हैं । उनका यह एक बहाना है दूसरे नारकी के विदारण करने का । नहीं चाहता वह नारकी उसका पीना । पिलाते समय वह अपने मुख को दबोच लेता है किंतु वे नारकी जबरदस्ती उसके मुख को संडासी से फाड़-फाड़कर अग्नि से गले हुए तांबे का रस पिलाते हैं । कोई गर्म पानी ही पी लेवे तो उसका मुख जल जाता है फिर वह तांबे का रस जो कि अत्यंत गर्म होता है उसे उस नारकी को पिलाया जाता है तो जरा सोचो तो सही कि उसका क्या हाल होता होगा? तो जैसे वहाँ मद्यपायी जीव का संडासी से मुख फाड़-फाड़कर ताँबा, लोहा, चाँदी, सोना आदिक का गलित रस पिलाया जाता है इसी प्रकार जो मांसभक्षी जीव वहाँ उत्पन्न होते हैं उन नारकी जीवों को दूसरे नारकी निर्दय होकर उनके ही शरीर का मांस खंड निकालकर या उसमें जो कुछ भी भाग है उस खंड को निकालकर उसे भून-भूनकर पका-पकाकर उनको ही खिलाते हैं और कहते हैं कि ले खा ले मांस ! तू मांस खाने का बड़ा शौकीन था । इस प्रकार नारकी जीव दूसरे नारकी जीवों को दुःख देने की आदत के कारण दुःख देते हैं, और करीब-करीब उस ही प्रकार का दुःख देते हैं जिस प्रकार का उन्होंने पापकर्म किया था ।