ज्ञानार्णव - श्लोक 1777: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
इंद्रायुधश्रियं धत्ते यत्र नित्यं नभस्तलम् ।
हर्म्याग्रलग्नमाणिक्यममूखै: कर्बुरीकृतम् ।।1777।।
स्वर्गलोक में नभस्तल की मनोहारिता―स्वर्गो में आकाश महल के अग्रभाग में लगे हुए रत्नों की किरणों से जो वहाँ एक विचित्र वर्ण वाला वातावरण बनता है उससे एक इंद्रधनुष जैसी नित्य शोभा रहती है । यहाँ ही अनेक ऐसी चित्रण और कलापूर्ण कारीगरी होती है कि जहाँ नाना प्रकार की शोभायें होने लगती हैं । तो वहाँ स्वर्गों में तो बहुत ऊंचे-ऊंचे प्राकृतिक महल है और उनमें बहुत से मणि अपने आप अनादि से ऐसे लगे होते हैं कि उनसे बहुत विचित्र शोभा होती है । ये सब पुण्य के ही फल हैं कि शोभायुक्त महलों में रहना, बड़े ऊंचे प्रासादों में रहना और जहाँ समागम भी बहुत पुण्यवानों का मिले, जहाँ वातावरण भी कुछ शांति का और सुख का मिले ऐसे स्थान पुण्य से प्राप्त होते हैं । तो स्वर्गों में ये ही पुण्य के बहुत से साधन जुटे रहते हैं । रहते हैं वहाँ देव, पर ज्ञानी देवों का अपने आत्मा की ओर ध्यान रहता है । वे स्थिर नहीं हो पाते, उनमें वीतरागता नहीं जग पाती, इस ही प्रकार कर्मों का उदय है लेकिन सम्यग्दर्शन का प्रताप सर्वत्र फलित है । जैसे नरकों में नारकी जीव सम्यक्त्व के प्रताप से वेदना नहीं सहते इसी प्रकार इंद्रादिक इन विषय सुखों में आत्मीयता का अनुभव नहीं करते । यही आत्मरक्षा है कि बाह्य में दृष्टि न फंसे, यथार्थ मार्ग सत्य बना रहे, यही अपने आपकी रक्षा है ।