वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1776
From जैनकोष
प्राकारपरिखावप्रगोपुरोत्तुंगतोरणै: ।
चैत्यद्रुमसुरागारैर्नगर्यो रत्नराजिताः ।।1776।।
स्वर्गलोक में उत्तम भवन, चैत्यालय आदि की रचनायें―उन स्वर्गो में नगरियों की भी रचनायें हैं, जहाँ देव लोग कुछ निकट-निकट रहा करते हैं वही वहाँ की नगरी है । उनमें कोट, खाई बड़े दरवाजे आदिक जो-जो कुछ नगरी की शोभा की चीजें हैं वे सब रत्नमयी शोभा को दे रही हैं । अपने महल के आराम के साधनों के अतिरिक्त वहाँ चैत्य वृक्ष और देवों के मंदिर भी प्राय: भवनों के साथ लगे हुए हैं । जीव की शोभा धर्म के लगाव से बढ़ती है । कोई मनुष्य हो, धर्म का उसका कोई लगाव न हो, अंदर में भी लगाव नहीं, विषय कषायों का रुचिया है, दूसरे जीवों को कुछ गिनता नहीं है, अपने ही स्वार्थ की साधना में जुटा रहता है ऐसा मनुष्य लोगों को प्रिय नहीं है और स्वयं का जीवन उसका भाररूप है । जिसका जीवन धर्म की लगन से युक्त है, समय पर लगन करता है, भगवद्भक्ति करता है, आत्मचिंतन करता है तो उसके शेष समय की कुछ प्रवृत्तियों से जो विषाद उत्पन्न होता है वह सब नष्ट हो जाता है । बहुत-बहुत भूलकर भी एक घंटा दो घंटा कोई आत्मा की सुध के लिए, चर्चा के लिए समय लगाया जाय तो बहुतसी भूल भटकनायें दूर हो जाती हैं और एक शांति का मार्ग मिलता है । तो स्वर्गों में भी भवनों के साथ-साथ चैत्यवृक्ष और देवो के मंदिर रत्नमयी मौजूद हैं, जहाँ समय-समय पर देव लोग जाकर जिनेंद्र भक्ति करते हैं और अपने आत्मा की कुछ सुधि लेते हैं । वहाँ पर भी एक धर्म का प्रसंग रहता है । जैसे यहाँ लोग शास्त्रसभा करते हैं ऐसे ही स्वर्ग में भी सौधर्मइंद्र शास्त्रसभा करते हैं । मध्यलोक में कोई धर्मात्मा पुरुष हो तो उसकी वे सौधर्मइंद्र प्रशंसा करते हैं । कितने ही देवतावों को यह जिज्ञासा हो जाती कि चलो उस साधर्मी व्यक्ति के पास चलकर उसका परीक्षण करें । सो वे देव उस साधर्मी व्यक्ति का परीक्षण करने आते हैं जिसकी प्रशंसा सौधर्म इंद्र ने की थी । तो वहाँ धर्म का साधन भी है, यह तो ठीक है क्योंकि पुण्य का एक विशेष फल है, ज्ञानी देव वहाँ पर भी धर्म की चर्चा किया करते हैं ।