ज्ञानार्णव - श्लोक 2066: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
निर्मरानंदसंदोहपदसंपादनक्षमम् ।
मुक्तिमार्गमतिक्रम्य क: कुमार्गे प्रवर्तते ।।2066।।
अज्ञानी का सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग में प्रवर्तन―जो पुरुष अत्यंत आनंद के समूहों को उत्पन्न करने में समर्थ ऐसे मोक्षमार्ग को विशुद्ध ध्यान को छोड़ देता है और कुमार्ग में प्रवृत्ति करने लगता है तो बतावो ऐसा कौन हो सकता है? ज्ञानी तो न होगा । अज्ञानी मंदबुद्धि जन ही ऐसा कर सकते हैं कि अच्छे ध्यान को छोड़कर खोटे ध्यान में आयें । अनेक मनुष्य इस धुनि में रहते हैं कि मैं इसका विनाश कर दूँ, इसकी मृत्यु करा दूं, इसको तकलीफ पहुंचा दूं, इसका नुक्सान करा दूं । मंत्र भी सीखते हैं इन्हीं बातों के करने के लिए । पुराणों के दो चार कथन स्पष्ट हैं कि उन मंत्र रचने वालों की बड़ी सेवा की, उनकी बड़ी उपासना की, मंत्र सीखा, अमुक मेरे वश हो जाय, अमुक मुझ से बड़ा न हो सके, कितनी-कितनी बातें ये पुरुष मोहवश ध्यान में रखते हैं पर उनसे तत्व कुछ भी नहीं निकलता, लाभ कुछ भी नहीं मिलता । अपना लाभ तो अपने में अपने से अपनी एक विशुद्ध परिणति से होगा, बाहर में कहीं कुछ नहीं है, उसको निरखकर अपने में क्षोभ न लाये, ऐसा ज्ञान बनायें ।
भेदविज्ञान के बिना आत्मविनाश के प्रवर्तन―समता की बात भेदविज्ञान के बिना नहीं हो सकती । जो रुच गया उसे मानोगे कि यह मेरा है, और जो बाधक होगा उस विषयसाधन में उसे मानोगे कि यह मेरा नहीं है, मेरा शत्रु है । तो ये जो दो भावनायें जगी, यह कितना मोहांधकार का परिणाम है? जीव जीव सब समान हैं, सबका एक स्वरूप है, पर उनमें कोई रुच गया और किसी से जलन हो गई, ईर्ष्या हो गई ऐसी जो बुद्धि हुई वह ज्ञान का फल है कि अज्ञान का? यह तो बड़े अज्ञान अंधकार की बात है । इसमें हमारा शृंगार नहीं, आत्मा की इसमें शोभा नहीं । इसमें तो आत्मा का विनाश ही है । इस प्रकार की सच्ची जानकारी क्या बनाई नहीं जा सकती? जानकारी भी बनाई जा सकती है, इस ही सही जानकारी के आधार पर हम अपना उत्थान भी कर सकते हैं । कितने विवाद मनुष्यों ने व्यर्थ के बना रखे हैं जिनसे खुद बड़ी चिंता में पड़े हैं । दो ही तो प्रयोजन हैं इस मनुष्य जीवन में एक तो आजीविका हमारी सही रहे ताकि ऐसे मौके न आयें कि भूखे प्यासे रहना पड़े या परिवार के लोगों को भूखे प्यासे रहना पड़े । और दूसरे―आत्मोद्धार की बात बनी रहे । तीसरी बात कौन सी हम आपको आवश्यक है सो तो बतावो? लोग तो कितने ही ऐसे कार्य करते हैं जिनका न आजीविका से संबंध है और न आत्मोद्धार से संबंध है । जैसे व्यर्थ के सामाजिक कलह । किसी समारोह में एक की जगह पर दो बाजे रख लिये, यह आगे रहेगा यह पीछे रहेगा इसी बात पर कलह कर डालते हें । यही एक बात क्या, पचासों बातें ऐसी हैं जिन में ये अज्ञानी जन हठ कर डालते हैं, उस हठ में बड़ा विवाद भी कर डालते हैं, खुद भी अशांत होते हैं और दूसरों को भी अशांत करते हैं, लाभ कुछ नहीं मिलता । ये सब अज्ञानता की बातें हैं ।
सुध्यान को न छोड़ने का अनुरोध―यहाँ यह कह रहे हैं कि अद्भुत, अतिशय, विशुद्ध आनंद को प्राप्त करने में समर्थ ऐसे सभी सद्ध्ध्यानों को कोई छोड़ दे तो उसमें अपना ही नाश है । ऐसे सद्ध्यानों को ज्ञानी पुरुष कदापि नहीं छोड़ सकते । धनी होने के लिए किसी देवता की आराधना करना और यहाँ तक कि वीतराग प्रभु मंदिर में भी राग की मूर्ति रख देना, और कोई बुरा न कहे इस बचाव के लिए उस राग वाली देवी की मूर्ति के ऊपर आध इंच की कोई भगवान की मूर्ति बना देना, उस भगवान का पूजन करना, उससे धन वैभव की प्राप्ति के लिए आराधना करना, ये क्या कोई भली बातें हैं । कोई मान लो उस तरह से धनिक भी बन जाय तो उसके माने हुए भगवान ने उसे धनिक नहीं बना दिया । उस भगवान की भक्ति के प्रताप से उसका स्वयं का पुण्यरस बढ़ा और उससे अनेक सामग्रियां प्राप्त हुई जिससे वह धनिक बना । तो धनिक बनने से भी क्या लाभ है? मेरी तो जो स्थिति है वही मेरे लिए भली है । मैं तो धर्म के लिए जीवित हूँ ऐसी भावना होनी चाहिए । खोटे ध्यान में चित्त जाने से अपना विनाश ही है, लाभ कुछ नहीं ।