वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2065
From जैनकोष
असद्ध्यानानि जायंते स्वविनाशायैव केवलम् ।
रागाद्यसद्ग्रहावेशात्कौतुकेन कृतान्यपि ।।2065।।
खोटे ध्यानों से स्वयं की बरबादी―खोटे ध्यान अपने ही नाश के लिए उत्पन्न हुआ करते हैं । वे कौतुक भाव से किए हुए हों तो भी रागादिक असद्भावों का उसके इतना ग्रहण होता है कि वह नाश के ही सम्मुख रहता है । यह ध्यान बना रहे, चित्त में बहुत-बहुत बसा रहे तो यही फिर आचरण में आ जाता है । कहां तक कोई अपना खोटा भाव छिपायेगा? जब खोटे भाव की भावना बना रहा है तो बाहर में चाहे जितनी सफाई रखे, पर वह बात तो बनेगी, वैसी चेष्टा तो बनेगी । उसे कौन दूर कर सकता है? एक सेठ के तीन तोतले लड़के थे, सगाई के लिए नाई आया, उनके पिता ने उन्हें खूब सजा दिया और समझा दिया कि देखो जब नाई आये तब तुम लोग कुछ बोलना नहीं । पर हुआ क्या कि जब नाई आया और उनको देखकर उनकी सुंदरता की कुछ प्रशंसा की, तो उस प्रशंसा को सुनकर उन लड़कों से न रहा गया, वे बोल ही उठे―एक बोला―अभी टंडन मंडन टो लगा ही नहीं, नहीं तो बड़े अच्छे लगते, तो दूसरा बोला―टुप, डड्डा ने का कही थी, तो तीसरा बोला―अरे टुप टुप टुप । लो तीनों लड़के बोल उठे, उनके तोतलेपन की पोल खुल गई । ऐसे ही समझ लो कि कोई खोटा ध्यान बनाये रहे, वह चाहे कि हम मायाचारों से दूसरों को हितैषिता बताते फिरे, अपनी बड़ी प्रसन्न मुद्रा भी दिखायें, पर उसकी मुद्रा से, उसके आकार से, उसकी चेष्टा से वह बात प्रकट हो ही जाती है । खोटा ध्यान बनाने से तो इस लोक में भी अपकार है और परलोक में भी अपकार है । क्या फायदा पाया हमने दूसरे से जलकर, दूसरे से घृणा करके? अरे यह तो संसार है, अनेक प्रकार के जीव हैं । एक जीव पर क्या दृष्टि देना, अनंतानंत जीव हैं । क्यों व्यर्थ में दुर्विचार बनाकर, खोटे ध्यान बनाकर दूसरों से ईर्ष्या करके, दूसरों से जल कर के अपने की बरबाद कर रहे? उससे कुछ भी पूरा नहीं पड़ने का है ।