ज्ञानार्णव - श्लोक 2128: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
सवितर्कमवीचारमेकत्वपदलांचितम् ।
कीर्तितं मुनिभि: शुक्लं द्वितीयमतिनिर्मलम् ।।2128।।
एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान का स्वरूप―अब दूसरा शुक्लध्यान वितर्क सहित है, श्रुतज्ञान का तो आलंबन है, परंतु उसमें परिवर्तन नहीं है । जिस तत्व का ध्यान किया था उस ही तत्त्व के ध्यान में रहता है तब तक भी यह शुक्लध्यान है अर्थात् केवलज्ञान न उत्पन्न हो जाय । उससे पहिले ध्यान की बात इस दूसरे शुक्लध्यान में नहीं होती, इसलिए इसका नाम मुनि जनों ने एकत्ववितर्कअवीचार रखा है । एक ही पदार्थ में श्रुतज्ञान को लगाये रहना उसमें विचार न बने, परिवर्तन न बने, ऐसा ध्यान अत्यंत निर्मल होता है । यहाँ विचार का अर्थ परिवर्तन है, विचार करना नहीं कि एक विचार सहित हैं और एक विचार रहित है, किंतु प्रथम शुक्लध्यान में तो इतनी कमी है कि वहाँ परिवर्तन चलता रहता है । इस द्वितीय शुक्लध्यान में अर्थात् एकत्ववितर्कअवीचार में ऐसी दृढ़ता है कि ज्ञेय पदार्थ को बदलने का वहाँ काम नहीं, किंतु ध्यान किया और उसके पश्चात् केवलज्ञान हो जाता है ।