वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2127
From जैनकोष
सवितर्कं सवीचारं सपृथक्त्वं च कीत्तितमम् ।
शूक्लमाद्यं द्वितीयं तु विपर्यस्तमतोऽपरम् ।।2127।।
प्रथम शुक्लध्यान का स्वरूप―प्रथम दो शुक्लध्यानो में से पहिले शुक्लध्यान में तो वितर्क है और विचार है अर्थात् विषय बदलकर जो ज्ञान में आ रहा है, ध्यान में जो तत्व चल रहा है उसे बदल-बदलकर और अपने भोगो से भी बदलकर जो ज्ञान में आ रहा है, ध्यान में जो तत्व चल रहा है उसे भी अनेकश: बदल-बदलकर और अपने योगों को भी बदलकर ध्यान किया जाता है । अभी पुद्गल तत्व का ध्यान किया जा रहा था, अब आकाश तत्व का ध्यान चल रहा है, यों अनेक परिवर्तन पृथक्त्ववितर्कवीचार में होते हैं किंतु एकत्ववितर्कअवीचार में यह परिवर्तन नहीं है । यह परिवर्तन इस बात को सिद्ध करता है कि अभी रागांश है । रागांश के उपशम क्षय के बाद भी उपशांत मोह में प्रथम शुक्लध्यान रहता है वह पूर्व कर्मों का वेग है । यद्यपि उस राग का क्रियात्मक प्रयोग नहीं किया जा रहा है किंतु पहिले संस्कार वासना से इस ज्ञप्ति में भी निश्चिंतता नहीं हो सकी है, अतएव नाना विषय इसमें बदलते रहते हैं ।यह पृथक्त्ववितर्कवीचार 8वें गुणस्थान से 11वें गुणस्थान तक कहा है और 12वें गुणस्थान के प्रारंभ में भी थोड़े समयमात्र रह सकता है ।