ज्ञानार्णव - श्लोक 2129: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति तृतीयं सार्थनामकम् ।
समुच्छिन्नक्रियं ध्यानं तुर्यमायैर्निवेदितम् ।।2129।।
प्रभु का तृतीय और चतुर्थ शुक्लध्यान―तीसरे शुक्लध्यान का नाम है सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति । 12वें गुणस्थान में अर्थात् अरहंत भगवान के पहिले तो बहुत से योग रहते हैं, वे विहार करते हैं, उनकी दिव्यध्वनि खिरती है, तो बहुत लंबे चौड़े योग चलते हैं । इसके बाद जैसा कि पुराणों में वर्णन आया कि अमुक तीर्थंकर ने मुक्ति में जाने से एक माह पहिले योगनिरोध किया, उसका अर्थ योगनिरोध से नहीं है किंतु मोटे जो योग चलते थे―विहार करना, दिव्यध्वनि खिरना ये नहीं रहते हैं, किंतु आत्मा में तो प्रदेशों का कंपन अब भी है, आखिरी अंतर्मुहूर्तों में, वादरवचनयोग, वादरमनोयोग, वादरकाययोग, सूक्ष्म वचनयोग, सूक्ष्म मनोयोग का क्रमश: निरोध होता है, फिर केवल सूक्ष्म काययोग रहने की दशा में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है । जो सूक्ष्मक्रिया योग सहित है किंतु अप्रतिपाती है, जिसकी अब परमनि:संग अवस्था होनी है, यह तृतीय शुक्लध्यान है । वह केवली भगवान के अंतिम क्षणों में होता है । भगवान करोड़ों वर्षों तक भी अरहंत अवस्था में रहते हैं । जितनी आयु शेष रह गयी केवल-ज्ञान उत्पन्न होने के बाद वह उतने समय तक अरहंत अवस्था में रहता है । पर यह तृतीय शुक्लध्यान इस समस्त जीवन में न होगा, किंतु सयोगकेवली के अंतिम अंतर्मुहूर्त में होगा ।चौथा शुक्लध्यान है समुच्छिन्नक्रिय, जहाँ समस्त काययोग नष्ट हो गए हैं, कोई क्रिया नहीं रहती है, परमनिष्क्रिय दशा है, आत्मप्रदेशों में किसी भी प्रकार का हलन-चलन कंपन नहीं है, ऐसी स्थिति में कहलाती है व्युपरतक्रिय अर्थात् समुच्छन्नक्रिय । यह चौथा शुक्लध्यान है ।
भगवत्स्वरूप के बाह्य चमत्कार की भी यथार्थता―समुच्छिन्नक्रिय के पश्चात् फिर भगवान के शरीर का वियोग होता है, शरीर के अणु कपूर की तरह उड़ जाते हैं, देह नहीं पड़ा रहता है । जैसे मुनिराज का देह मरण होने पर यहीं पड़ा रह जाता है, इस प्रकार से भगवान का देह पड़ा हुआ न मिलेगा । देखिये―कितनी यथार्थता से निरूपण है? परमवीतरागता जहाँ प्रकट हुई है, वे प्रभु आहार करें, कहीं तो कितना अटपटा सा लगे, और जब निर्वाण होता है, आयु समाप्त होती है उस समय यह शरीर मृतक पड़ा रहे तो यह भी एक भगवत्ता के कायदे से फिट नहीं बैठता है । प्रभु का शरीर कपूरवत् उड़ जाता है । केवल नख और केश रहते हैं, वे भी क्यों रहते हैं कि जितने नख इन अंगुलियों से बाहर निकले हुए हैं उन नखों में आत्मप्रदेश नहीं हैं और जो केशों का ऊपरी भाग है वहाँ भी आत्मप्रदेश नहीं हैं, जहाँ आत्मप्रदेशों का संबंध नहीं है वह तो बाहरी जड़ पदार्थों की तरह है । उनसे जब आत्मा का संबंध ही नहीं तो वे कैसे उड़ जायें? तब उन नख और केशों को इंद्र आकर उठा ले जाता है और भक्तिपूर्वक उन्हें क्षीरसागर में सिरबा देता है, ऐसा वर्णन आया है । तो देखिये―यह मनुष्य शरीर ढाईद्वीप के बाहर नही जा सकता । लेकिन क्षीर समुद्र तो 5वें द्वीप के बाद का समुद्र है, ढाई द्वीप से कितनी ही दूर है, वहाँ नख और केश चले जा सकते हैं । कारण यह है कि नख और केश शरीर के अंग नहीं हैं, वे जड़ हैं और शरीर के मल हैं । तो समुच्छिन्नक्रिय निष्कंप अवस्था के बाद भगवान का निर्वाण होता है । यों अरहंत अवस्था में ये दो शुक्लध्यान बताये गए हैं ।