वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2130
From जैनकोष
तत्र त्रियोगिनामाद्यं द्वितीयं त्वैकयोगिनाम् ।
तृतीयं तनुयोगानां स्यात्तुरीयमयोगिनाम् ।।2130।।
योग की अपेक्षा शुक्लध्यान का निरूपण―अब योग की अपेक्षा इन शुक्लध्यानों का वर्णन करते हैं । योग तीन प्रकार के होते हैं―मनोयोग, वचनयोग और काययोग । मन के कारण से आत्मप्रदेशों के हिलने का नाम है मनोयोग । वचन प्रवृत्तियों के कारण से आत्मप्रदेशों के हिलने का नाम है वचनयोग और काय की प्रवृत्तियों से आत्मप्रदेशों के हिलने का नाम है काय-योग । प्रथम शुक्लध्यान इन तीनों योग वाले मुनियों के होता है और उस प्रथम शुक्लध्यान के समय में यह योग बदलता रहता है । अब मनोयोग में रहते हुए ध्यान चल - रहा है तो अब वचनयोग हो गया अथवा काययोग हो गया । इस तरह ये योग बदलते रहते हैं । यों प्रथम शुक्लध्यान त्रियोगी योगियों के होता है । दूसरा शुक्लध्यान एक योग बाले के होता है । अब वह कोईसा भी योग हों, नियम नहीं है 12वे गुणस्थान में जबकि एक ही किसी पदार्थ के ध्यान में एकाग्रता हुई है तो पदार्थ भी ध्यान में एक है और जिस योग में रहकर ध्यान बना है वही योग रहेगा उस द्वितीय शुक्लध्यान तक । तो दूसरा शुक्लध्यान जो कि परिवर्तन रहित है वह एक योग वाले योगीश्वर के होता है । तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग वाले जीवों के होता है । ऐसी है सयोगकेवली की अंतिम अवस्था, जहाँ केवल सूक्ष्म काययोग रह जाता है उस ही समय सयोगकेवली भगवान में सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान होता है, और चौथा ध्यान अयोगियों के होता है । अयोगकेवली जिनके योग नहीं है ऐसे भगवान के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है । एक परिणति बतायी गई है कि 14वें गुणस्थान में कोई क्रिया नहीं है, समस्त योग नष्ट हो गए हैं, इसके प्रसाद से वहाँ कर्मों की निर्जरा चलती है अतएव ध्यान कह लिया गया है।