ज्ञानार्णव - श्लोक 222: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
यत्र भावा विलोक्यंते ज्ञानिभिश्चेतनेतरा:।
जीवादय: सलोक: स्यात्ततोऽलोको नम: स्मृत:।।222।।
लोकस्वरूप का दिग्दर्शन―बारह भावनाओं में यह लोक भावना है। लोक किसे कहते हैं? जितने आकाश में चेतन और अचेतन पदार्थ देखे जायें उसको लोक कहते हैं। और उसके परे जो हैं वह अलोक हैं। लोक शब्द का अर्थ देखना है। जैसे हिंदी में कहते हैं, क्या तुम लुकलुककर देखते हो, तो लुक धातु का देखना अर्थ है और लुक से बना है लोक। यानि जहाँ पर सभी पदार्थ देखे जायें उसका नाम है लोक और उससे बाकी जितना भी बचा हुआ है चारों ओर वह है अलोक। लोक में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल 6 द्रव्य हैं, और अलोक में केवल आकाश है। तो जहाँ छहों द्रव्य पाये जायें उसका नाम है लोक और उससे बाहर जितना भी आकाश बचा है वह सब है अलोक। तो लोक की कैसी रचना है, लोक को किसने बनाया है अथवा नहीं बनाया है, वह लोक कब से चला आ रहा है, किसके बल पर चला आ रहा है, इस लोक की कैसी रचना है, कैसा आकार है और लोक में बहुधा काम क्या हुआ करता है, इन सब बातों का वर्णन इस लोक भावना में आयगा।
लोकभावना के उपलब्ध मुख्य शिक्षा―लोक भावना भाने से शिक्षा यह मिलती है कि हे आत्मन् ! इस लोक में जो कि इतना बड़ा है इसमें एक भी प्रदेश ऐसा नहीं बचा है जहाँ यह जीव अनंत बार पैदा न हुआ हो और मरा न हो। जब इस लोक में प्रत्येक प्रदेश पर अनंत बार पैदा हो चुके, अनंत बार रह चुके और इस लोक में अनेक बार अनेक समागम हुए तब कहाँ ममता करते हो, किस चीज में ममता करते हो? यहाँ जीव वह दु:खी है जिसके ज्ञान की दृष्टि नहीं बन रही और जिसके ज्ञान की दृष्टि बनी वह सुखी है धन वैभव से सुख शांति नहीं मिलती है। जितनी ज्ञान की ओर अपनी निगाह हो उतना तो आनंद है और जितनी अज्ञानमय जैसी बात वह सब क्लेश है धन से सुख होता हो तो देख लो करोड़पति तो दु:खी और खोंचा लगाकर अपने बच्चों का पेट पालने वाले गाते हुए बड़ी मस्ती से मिलेंगे। तो धन से सुख नहीं है यह तो अपने-अपने ज्ञान की बात है। तो लोकभावना भाने से यह शिक्षा मिलती है। अब इस लोक के संबंध में आकार कैसा है? उसका इसमें वर्णन करते हैं।