वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 221
From जैनकोष
यदि नरकनिपातस्त्यक्तुमत्यंतमिष्टम् स्त्रिदशपतिमहद्धिं प्राप्तुमेकांततो वा।
यदि चरमपुमर्थ: प्रार्थनीयस्तदानीं किमपरमभिधेयं नामधर्म विधत्त।।221।।
धर्म के लक्षण अनेक पर भाव सबका एक―हे आत्मन् ! यदि तुझे नरक का रहना इष्ट नहीं है, नरक से दूर रहना चाहता है। यदि इंद्रों जैसी महाविभूति प्राप्त करना चाहता है, अथवा 4 पुरुषार्थों को तू चाहता है। तो विशेष क्या कहा जाय। तो एकमात्र धर्म का सेवन कर। धर्म के 4 स्वरूप बताये गए हैं। एक तो जो वस्तु का स्वभाव है सो धर्म है। जैसे आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन है तो शुद्ध ज्ञान दर्शन की वृत्ति होना यह आत्मा का धर्म है। एक तो वस्तुस्वभाव का नाम धर्म है, दूसरा बताया है क्षमा, मार्दव, आर्जव आदिक जो 10 प्रकार के विशुद्ध परिणाम हैं वे धर्म हैं। अब 10 धर्मों का तो इस भावना के प्रकरण में खूब वर्णन आ चुका है। तीसरा स्वरूप बताया है धर्म का रत्नत्रय धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अर्थात् आत्मा का यथार्थ विश्वास होना और जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है, अपने आप जो अस्तित्व है उसमें जो स्वभाव पडा हुआ है उस स्वभाव की दृष्टि रखना, ज्ञान रखना और उस स्वभाव में मग्न होने का यत्न रखना यही रत्नत्रय है और धर्म है। चौथा स्वरूप बताया है दयामयी धर्म जहाँ अपनी दया और पर की दया का निवास है उसे धर्म कहते हैं। अपनी दया तो इसमें है कि विषयों की इच्छा न जगे और कषायों के वेग न उठें, क्योंकि विषयों की इच्छा होने से यह आत्मा बेचैन हो जाता है। और किसी भी प्रकार की कषायें उठती हैं तो यह आत्मा विह्वल हो जाता है। यदि कषायें न जगें, विषयों की इच्छा न बने तो समझो अपनी दया है। ये दो ही बड़े दुश्मन हैं आतम के अहित विषय कषाय। विषय और कषाय ये दोनों ही आत्मा के शत्रु हैं। तो विषयों की इच्छा न जगे और कषाय न उत्पन्न हों यह आत्मा की दया है। अब सोच लो हम जितने भी धर्म के नाम पर काम करते हैं उन सब कामों में यदि ये 2 बातें बनती हैं तो यही धर्म है और यही अपनी दया है, और इसके लिए ही पूजा, जाप, स्वाध्याय सब कुछ किए जाते हैं।
पूज्य के पूज्यत्व की पहिचान―पूजा―पूजा में भगवान अरहंत का स्वरूप विचारा जाता है। प्रभु शुद्ध हैं प्रभु सर्वज्ञ हैं, इसका अर्थ क्या है? समस्त दोष कालिमाओं से रहित जब तक प्रभु के निर्दोष स्वरूप की स्मृति न जगे तो हमने प्रभु की पूजा क्या की? हम पूजा करें और प्रभु में गुण क्या हैं? उसकी खबर न रहे तो वह पूजा क्या पूजा है? पूजा के मायने प्रशंसा गुणानुवाद। जो सही बात है उत्कृष्ट बात है उन गुणों का बोलना यही पूजा है। वे गुण हममें भी हैं तो उन गुणों का विकास हो यह प्रयोजन सिद्ध होता है इसलिए प्रभुपूजा की जाती है। मान लो प्रभु में कितने ही उत्कृष्ट गुण हों तो वे गुण उनके लिए हैं, हमारे लिए क्या हैं। यदि हम प्रभु के समान गुणस्वभाव वाले न हों तो प्रभु चाहे कितने ही ऊँचे गुणवान हों, उनकी पूजा से लाभ क्या होगा? हमें कुछ लाभ मिले तब तो पूजा का प्रयोजन है। प्रभु के गुणस्मरण से हमें लाभ यह होता है कि हमें अपने स्वरूप की सुध होती है। मैं भी तो प्रभु के समान अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति का धारी हूँ, कैसा मैं भेड़ बकरियों के बीच पले हुए सिंह की तरह कायर बन रहा हूँ? जैसे कोई गडरिया अपनी भेड़ बकरी चराने जंगल में गया तो वहाँ सिंह का बहुत छोटा बच्चा उसे मिल गया। उसकी माँ मर गयी हो या कहीं बिछुड़ गई हो। गडरिया ने उस सिंह के बच्चे को पकड़ लिया और अपनी भेड़ बकरियों में उसे रख लिया। वह सिंह का बच्चा बड़ा हो गया किंतु अपने को उसी तरह जैसे भेड़ बकरियाँ रहती थी वैसा ही अपने को मानने लगा। एक बार एक शेर ने बड़ी जोर की हुंकार मारी तो गडरिया, बकरी, भेड़ सभी भागने लगे। वह सिंह का बच्चा सोचता है कि मैं भी तो इस ही की तरह का हूँ जिसकी हुंकार सुनकर ये सब भग रहे हैं। इतना ख्याल होते ही वह छलांग मारकर निकल गया, लो उसका सारा बंधन छूट गया। वन में स्वतंत्र होकर विचरने लगा ऐसे ही हम आप संसार के सब आत्मा अनादि काल से विषय कषायों से मलिन हैं और विषय कषायों से मलिन आत्माओं में व्यर्थ रमा करते हैं। तो ऐसी आदत बन गयी है कि दूसरों को भी कायर देखते और स्वयं में भी कायरता का अनुभव करते।
प्रभु भक्ति की उपादेयता―मैं यह हूँ, मेरा तो यह काम है, मेरा यह परिवार है, इस प्रकार की व्यवस्था बनाना, परिग्रह का संचय करना, दूसरों की बात सहन करना पड़े तो सहन करना यह सब कायरता इन विषयों के लोभी पुरुषों में आ गयी, अब उस कायरता के आदी बन गए। जब भगवान के गुणों का यह स्मरण करता है और वहाँ अपने आपकी इसे सुध होती है ओह मैं भी तो प्रभु की तरह ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला हूँ। मेरा स्वरूप और क्या है? जो प्रभु का स्वरूप है वही मेरा स्वभाव है। आत्मीय ज्ञान और आनंद इन दो गुणों का ही सब कुछ ठाठ है। रूप इसमें है नहीं, रस, गंध कुछ है नहीं, मिट्टी के ढेले की तरह यह पकड़ा जाता नहीं। यह आकाश की तरह निर्लेप, अमूर्त किंतु जानने देखने के स्वभाव वाला यह एक अनुपम तत्त्व है। तो मेरा स्वरूप भी ज्ञान और आनंद है। ज्ञान और आनंद के अतिरिक्त अन्य कुछ मुझमें है ही नहीं। अन्य जो कुछ हमारे साथ लेप होते हैं वे सब पुद्गल हैं। मैं इन सब परतत्त्वों से भिन्न केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ, ऐसी दृष्टि जगती है प्रभु के गुण स्मरण में, प्रभु की भक्ति में तो इसीलिए हम प्रभु भक्ति करते हैं कि हमें अपने आपका वहाँ लाभ होता है।
इष्ट सिद्धि का मूल धर्म―जहाँ विषय और कषाय ये दोनों परिणाम मिटें वही है अपनी दया और जो अपनी दया पाले हुए है उसके निमित्त से दूसरे पर कोई उपद्रव नहीं है। और दूसरे की दया रखता है, दूसरे को कैसे शांति मिले, कैसे आराम मिले उसके विरुद्ध यह कुछ नहीं सोचता है बस यही परदया है। तो धर्म का चौथा स्वरूप है दयामय होना। तो इन चार स्वरूपों में बात एक ही पायी जाती है आत्मा का विशुद्ध परिणमन। आत्मा को जो निर्मल परिणमन है वही धर्म है। उसी धर्म के प्रताप से यह जीव मोक्षपुरुषार्थ की भी सिद्धि करता है। तो हे आत्मन् ! यदि तुझे नरक गमन इष्ट नहीं है। इंद्र के जैसा महान् वैभव पाना इष्ट है तो 4 पुरुषार्थों में से अंतिम जो मोक्ष पुरुषार्थ है उसका तेरा वादा है तो इस सब सिद्धि के लिए अनेक बातें क्यों बतायें, एक ही उपाय है कि तू इस धर्म का सेवन कर। यह धर्म ही सर्व प्रकार से तेरी रक्षा करता है और सर्व प्रकार के इष्ट तत्त्वों की प्राप्ति कराता है।
धर्म के सिवाय अन्य में शरणत्व का अभाव―अब अपने को इस धर्मभावना के भाने से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हमारा इस लोक में अन्य कोई शरण नहीं है, किसकी शरण जायें? खुद का श्रद्धान्, ज्ञान और आचरण यदि धर्म रूप है तो दुनिया के अन्य पदार्थ भी इसकी रक्षा के साधन बन जायेंगे। यदि खुद में धर्म नहीं है तो कैसी भी स्थिति कोई प्राप्त कर ले लेकिन जब पाप का उदय आयगा तो सब मुख मोड़ लेंगे, कोई रक्षा करने वाला न होगा। एक मात्र धर्म का सहारा लें। धर्म के प्रताप से इस भव में भी अनेक समृद्धियों की सिद्धि होती है और के बाद भी इस धर्म के प्रताप से अनेक अनुपम सिद्धि जगती हैं और अंत में इस धर्म का सहारा लेने से मुक्ति प्राप्त होती है। भला सोचो कि जहाँ शरीर भी दूर हो जाय, विकार दूर हो जायें, केवल आत्मा ही आत्मा रहे ऐसी सिद्ध दशा प्राप्त होती है वहाँ आकुलता का कोई काम रहता है क्या? भूख, प्यास शरीर की वजह से होती है। शरीर न रहे तो भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि की कोई वेदना ही न रहे। ये सब वेदनाएँ तो शरीर में आत्मबुद्धि करने से होती हैं। जहाँ शरीर ही न रहे, विकार ही न रहे केवल ज्ञानस्वरूप ही बस रहा है, अनंत आनंदमयता का अनुभव चल रहा है वहाँ सम्मान, अपमान की वेदना, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदिकी वेदना का क्या काम है?
धर्म से ही संकटों के विनाश की संभवता―जगत के जितने भी क्लेश हैं वे सब अधर्म के कारण हैं। परवस्तु को यह में आत्मा हूँ, ऐसा मानना अधर्म है। अपने आपके विकार को यह मेरा कर्तव्य है, यह मेरा काम है इस प्रकार इन परभावों में आत्मीयता की बात मानना अधर्म है। अब सोचते जाइये हमें जब-जब भी क्लेश होते हैं अधर्म के कारण होते हैं। ज्ञान यदि सही बना रहे, भेदविज्ञान बना रहे वहाँ क्लेश का कोई काम नहीं रह सकता। यदि समस्त संक्लेशों से, समस्त संसार के संकटों से निवृत्त होना है तो अपना मूल कर्तव्य है यह कि हम धर्ममार्ग में लगें, धर्मरूप अपना आचरण बनायें तो सर्व प्रकार से सुख हो सकता है। देखिये धर्म तो चीज एक ही है। और यह मोक्षरूप में केवल शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप है किंतु व्यवहारनय की प्रधानता करके जब सोचते हैं तो हमें धर्म का स्वरूप, धर्म की महिमा, धर्म का फल ये सब जानना चाहिए। जब हमें धर्म के संबंध में सब तत्त्वों का ज्ञान होगा तो हम धर्म की भावना कर सकेंगे और धर्म भावना में सफल हो सकेंगे।
लोक भावना