ज्ञानार्णव - श्लोक 27: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
स्वतत्त्वविमुखैर्मूढै: कीर्तिमात्रानुरंजितै:।
कुशास्त्रछद्मना लोको वराको व्याकुलीकृत:।।27।।
कुशास्त्र के प्रणयन का हेतु मनोरंजन― जिन्होंने खोटे शास्त्र बनाये हैं उनका आशय क्या हो सकता है? यह भी अधिक संभव है कि कुछ जानते भी हों कि यह बात धर्ममार्ग में फबती नहीं है, सम्यक् नहीं है फिर भी उस बात पर डटे रहें, उसका पोषण करते रहें तो ऐसा करने में क्या-क्या कारण हो सकते हैं? तात्कालिक ऐसा वातावरण होगा जिससे इसके खिलाफ चलें तो कीर्ति नहीं मिल सकती। स्वतत्त्वविमुख मोही जनों ने केवल कीर्ति की इच्छा से ऐसी जानकारी का असत् शास्त्र बनाया है और कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं कि जिन्हें स्वतत्त्व का बोध नहीं है, मुग्ध हैं, ऐसे लोगों ने खोटे शास्त्रों के छद्म से इस लोक को व्याकुल बना दिया है। यह लोक तो स्वयं दीन था, कायर था, विषयाभिलाषी था और फिर विषयों का ही भगवत् चारित्र बता बताकर उसमें फँसाने का उपदेश दिया है तो उन ग्रंथ रचियताओं ने हम लोगों को ठगा ही तो है।
धर्म की पराधीनता का निषेध―खुद-खुद में मग्न होकर सुखी हुआ करते हैं, यह बात बताने वाले बिरले ही हुआ करते हैं, यदि धर्म ऐसा है कि दूसरों की दया पर होता है, दूसरों की शरण में बने रहने से मिलता है तो ऐसे धर्म की यों आवश्यकता नहीं है कि कदाचित् दूसरों की दया से थोड़ी देर को सुख मिल जाय, किंतु वह दूसरा फिर विमुख हो जाय तो हमें तो वही का वही दु:ख रहेगा, ऐसी धर्म की जरूरत नहीं है, जो धर्म दूसरों की दया पर आधारित हो, जो दूसरा हमें सुखी करे शांत करे तो हम सुखी शांत हो सकें ऐसा नहीं होता है। खुद का उपयोग स्वच्छ चाहिये। खुद-खुद के उपयोग में मग्न होकर अपने आपको निर्विकल्प बना लेगा, ऐसी विधि से ही संतोष और शांति बन सकती है, सिर्फ हिम्मत करने की जरूरत है। अरे किसी दिन तो यह सारा समागम छूट ही जायेगा। श्रद्धा में ऐसी हिम्मत क्यों नहीं लाते?
सम्यक् विश्वास ज्ञान आचरण से सन्मार्ग की प्राप्ति― सर्वविषयों से न्यारा चैतन्यस्वरूपमात्र मैं आत्मतत्त्व हूँ। इस विशुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान ज्ञान और इसका आचरण यह संकटों से छुटाने का एकमात्र मार्ग है। विश्वास ज्ञान और आचरण के बिना किसी कार्य में सफलता मिली है क्या किसी को? जो कोई व्यापार करता है उसका व्यापार में विश्वास है, व्यापार की विधियों का ज्ञान है और उन विधियों को करने लगता है तब तो व्यापार में सफलता मिलती है, कोई भी कार्य हो उसमें विश्वास होना, उसका ज्ञान होना और उसका यत्न करना― इन तीन बातों से उस कार्य में सफलता मिलती है। हमें चाहिये शांति, तो शांति मुझमें आ सकती है, शांति मेरा स्वभाव है, ऐसा इस अंतस्तत्त्व का विश्वास होना चाहिये, और इस ही तत्त्व का स्वरूप का विधि से स्पष्ट बोध भी होना चाहिये। फिर ऐसा ही उपयोग बनाकर रहें, ऐसी ही ज्ञानवृत्ति बनायें तो शांति क्यों न मिलेगी? मिथ्याविश्वास, मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण में जब यह विडंबना बना ली हे तो सम्यक्विश्वास, ज्ञान और आचरण से मुक्ति क्यों न हो सकेगी?
आत्महित में प्रमाद का अकर्तव्य― इस जीव ने व्यामोहवश एक अज्ञान भाव बना लिया है, इस देहादिक को दृष्टि में रखकर ऐसी कल्पना कर ली है कि यह मैं हूँ, इस कल्पना के फल में कितना विवाद खड़ा हो गया? शरीर में फँसा, रागद्वेषों का चक्र लगा, अपने आपमें यह शांति न पा सका तो मिथ्या विश्वास, मिथ्याज्ञान और मिथ्या भावनारूप आचरण इसने यह संसार की विडंबना की स्थिति बना दी है। अब जिस उपाय से खोटी बातें बन गई हैं उसके विरुद्ध उपाय करने लगें तो खोटी बातों से मुक्त हो सकेंगे। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता, यही है मुक्ति का उपाय और इस मार्ग में सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु की उपासना रखना यह प्रथम कर्तव्य हो जाता है। हमें अपनी शक्ति माफिक जो करने योग्य बात है उसके करने में प्रमाद न करनाचाहिये तब हम उसमें सिद्धि पा सकते हैं।