वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 28
From जैनकोष
अधीतैर्वा श्रुतैर्ज्ञानै: कुशास्त्रै: किं प्रयोजनम्।
यैर्मन: क्षिप्यते क्षिप्रं दुरंते मोहसागर।।28।।
कुशास्त्रों से प्रयोजन की असिद्धि― उन शास्त्रों के पढ़ने सुनने जानने से क्या प्रयोजन है जिनसे जीवों का मन इस दुरंत मोहसमुद्र में शीघ्र ही पड़ जाता है। राग भरी बातों को सुनने में यह मन बहुत लग जाता है। जब कभी गप्प सभा लग जाय तो चाहे रात के 12 बज जायें पर उस गप्पगोष्ठी को छोड़ने का मन नहीं करता। जो उपदेश इन रागद्वेष वासना वाले जीवों को राग की ओरप्रेरित करे वह उपदेश इस मोही को प्रिय लगता है, किंतु फल क्या निकलता है कि इस दुरंत संसारसागर में उसे पड़ा रहना पड़ता है।
अपूर्व अवसर के दुरुपयोग पर खेद― देखिये इतना सुंदर सुयोग है हम आप सबका कि छोटे से लेकर बड़े ग्रंथ तक देख लो सभी ग्रंथ कल्याणकारी अंतरंग मार्ग को बताने वाले हैं और साथ ही हम आपका ऐसा शुद्ध वातावरण भी है कि परंपरा से इस धर्म की बात संभाले हुए हैं, अब ऐसा सुयोग का अवसर पाकर दिल बहलावे में ही समय गुजार दें तो यह तो हम आपकी अयोग्यता की बात है। बारह भावना के दोहे 6-6 वर्ष के बालक भी बड़े चाव से पढ़ते हैं उनमें भी वीतरागता की बात है और ऊँचे अध्यात्मशास्त्र, सिद्धांत शास्त्र, दर्शनशास्त्र उनमें भी वीतरागता की ओर ले जाने वाले सारे उपदेश हैं। ऐसे सुंदर पवित्र वातावरण में पलकर भी हम आप इस अमूल्य समय का दुरुपयोग करें तो यह खेद की बात है।
मनोरंजन से असिद्धि― जो संसारसागर से तिरा दे उस उपदेश के सुनने से ही लाभ है। बाकी तो रागभरे उपदेश बड़े सुहावने लगते हैं। प्रभु को कुछ पकवान चढ़ाना और उसे फिर बड़ी विधि से खाना यह एक राग की विधि है। कोई गृहस्थ प्रभु का चारित्र गा-गाकर अपने मन को खुश करे तो ऐसे भजनों में कितना मन लगाताहै लेकिन ये सब राग की विधि है। धर्म के नाम पर व्रत, संयम के नाम पर यह न खाया, चलो फलाहार किया, अच्छा मन रहा आयेगा। लो धर्मात्मा भी बन गये और शारीरिक श्रम कष्ट भी न करना पड़ा। तो राग की विधियों का जहाँ उपदेश हो वह उपदेश सुहावना तो लगता है किंतु उसका परिणाम उत्तम नहीं है। ऐसे तो इस पाये हुए नर-जीवन को खो दिया समझिये।
नरजीवन का योग― सबको नर-जीवन दुर्लभता से मिलता है। चाहे किसी भी देश का हो, किसी भी मजहब का हो नर-जीवन तो उसी ढंग का मिला है वैसे ही कर्मों के उपशम क्षयोपशम सबको मिले हैं। यह अपने-अपने उपयोग की बात है कि कौन किस दृष्टि में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता है? जिस वृत्ति में यह आत्मप्रभु प्रसन्न रह सकता है उस वृत्ति को न करके इससे मुँह चुराकर, उपयोग हटाकर नाना वृत्तियों को करना, यह सब इस प्रभु के साथ धोखे का काम हो रहा है। उन उपदेशों का, उन वचनों का, उन शास्त्रों का अध्ययन अहितकारी है जो इस जीव को इस संसारसागर में डुबो दे।
भूमिकामेंप्रकाश― इस ग्रंथ की भूमिका में वे सब बातें बतायी जा रही हैं जिनकी तैयारी से इस ग्रंथ में बड़े संकल्प और भावना सहित इसमें प्रवेश करें। जैसे पूजा करते समय पूजा की भूमिका में, प्रस्तावना में कितनी बड़ी तैयारी भरी हुई है? कोई उस पर दृष्टि दे तो विदित हो जायेगा कि कितनी निर्मलता और कितना विकास, कितनी भावभासना पूजा करने से पहले पूजक कर सकता है? जो स्वस्तिवाचन पढ़ते हैं और उसमें भी जितनी तैयारी दिखायी जाती है उस पर दृष्टि दें। जब आप प्रभु ध्यान की महिमा पढ़ते हैं, चाहे पवित्र हो, चाहे अपवित्र हो, कैसे ही बैठे हों, कैसी ही अवस्था हो, जो पुरुष इस परमेष्ठी स्वरूप का ध्यान करता है, परमात्मा का स्मरण करता है वह पवित्र है, वह सर्वपापों से छूट जाता है। इस भाव में यह पूजक अपने आपमें कितनी प्रसन्नता व निर्मलता प्राप्त कर लेता है।
स्वस्तिवाचन में विशुद्ध संकल्प का उदाहरण― अब जरा स्वस्तिवाचन में चलिये। जब पूजक यह कहता है कि मैं तो शक्ति के अनुसार समस्त शुद्ध द्रव्यों को प्राप्त करके अपने भावों को शुद्ध करने के लिये दृढ़ संकल्प वाला होता हूँ, और भी उसके अंत: प्रवेश करते हैं तो ऐसा लगता है कि पहिले तो नटखट बहुत किया, थाली सजाया, खड़ा हुआ, अब इस ही बीच मुझे ऐसा लगने लगा कि ये नाना बातें तो की हैं मगर यह तो सब कुछ एक ही बात है और वह क्या? वह ज्ञानपुंज वह प्रभुस्वरूप। लो ये मुझे कुछ नटखट से जँचने लगे, पर प्रभुस्वरूप में यह टिक नहीं सकता, सो फिर यह संकल्प बनाता है कि मैं सर्व प्रयत्न करके इस प्रज्ज्वलित केवलज्ञान भावना में केवलज्ञानी होकर केवल शुद्ध निर्दोष उस परम अंतस्तत्त्व का अनुभव करूँगा, उसके लिये यह पूजक पूजा में खड़ा हुआ है।
ग्रंथनिर्वाह की सुगमता― जैसे सभाओं में प्रस्ताव रखने योगय प्रस्ताव पेश करने से पहिले भूमिका में जितना अधिक कहना पड़ता है उतना प्रस्ताव में कहने को नहीं रहता। यद्यपि यहाँ कुछ अति नहीं है, फिर भी भूमिका में वह सब तैयारी बतायी गई है कि जिससे इस ग्रंथ का निर्वाह रुचिपूर्वक पारित कर सकें।