ज्ञानार्णव - श्लोक 399: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भ्रमांति नियतं जंमकांतारे कल्पषाशया: ।दुरंतकर्मसंपातप्रपंचवशवर्तिन: ॥399॥
कलुषित आशय की जन्मवनपरिभ्रमण कारणता – यहाँ पापाशययुक्त संसारी जीव इस जन्मरूपी बनमें दुष्कर्के समूह के प्रपंच के वश होकर निरंतर भ्रमण कर रहे हैं । सबसे मुख्य पाप का आशय तो मिथ्यात्व है । वस्तुस्वरूप के अनुकूल ज्ञानप्रकाश न होना, इस अंधेरे में जो दुर्गति जीव की होती है वह समस्त दुर्गतियों में प्रथम नंबर की दुर्गति है । भ्रम में इस जीव को अपने हित अहित की ओर दृष्टि नहीं रहती । पुण्य का उदय भी आये, सांसारिक समागम भी मिलें उस प्रसंग में भी यह हर्ष से क्षोभ मचाकर आकुलित रहता है । जैसे कोई स्वप्न में देखे हुए समागमों को सच्चा मानकर खुश हो रहा हो तो उसकी खुशी होने का क्या मूल्य है । इसी तरह इस भ्रम में रहकर इन विनाशीक संपदावों के समागम का हर्ष मान रहा हो तो उसके इस हर्ष मानने का क्या मूल्य । लेकिन भ्रम मिथ्यात्व में जो खोये हुए प्राणी हैं उन्हें यह प्रकाश नहीं मिल पाता । जो कुछ यहाँ दृष्ट होता है उसे ही सार सर्वस्व समझने लगता है । और, इस मिथ्यात्व के वश होकर फिर यह जीव संसाररूप बन में निरंतर भ्रमण करता है । कितनी तरह के जीवों के शरीर होते हैं, उनकी गिनती संख्या से बाहर है । लोक में जितनी बड़ी से बड़ी संख्या मानी जा सकती हो और किसी भी रूप से संख्या की कल्पना की जा सकती हो उससे भी अतीत है, अर्थात् गिनती से बाहर है । इतनी प्रकार के जीवों के शरीरभेद हैं । उन शरीरों में यह जीव जन्म लेता है और मरण करता है । जिस शरीर में पहुंचता है उसी को ही अपना एक नवीन उपभोग मानता है । इस तरह अब तक अनंतकाल व्यतीत हो गया । इस अनंतकाल में कैसे कैसे विषय भोगे, स्थान पाये, फिर भी जो जो मिला है इसे नया सा लगता है ।उच्छिष्ट भोगों के परिहार के बिना आत्मप्रगति की असंभवता – जिन्हें अनंत बार पा चुके वे ही पुद्गल अब मिले हैं लेकिन वे नये से लगते हैं । उन्हें पाकर यह मोही मानता कि मुझको तो अपूर्व चीज मिली है । इसी से ही अंदाजा लगा लो । जिसे जो भोजन प्रिय है मान लो किसी को चावल और अरहल की दाल प्रिय है । वह जब जब भी खावेगा तो उसे एकदम नया सा लगेगा । उसे एकदम अपूर्व स्वाद आ रहा है । कल खायेगा तो वह यह नहीं सोच सकता है कि यह तो कल जान चुके । जो स्वाद है वह तो समझ चुके । अब समझी हुई चीज जो कुछ मूल्य नहीं रखती इस तरह से वहाँ प्रवृत्ति नहीं बन पाती । कोई गणित का हिसाब है, पहिली बार किया तो उसे हल करने में रुचि रहती है । हल कर चुके, कई लोगों को बता चुके, सबमें फैल चुका अब उस गणित के हल करने के लिए कोई देवे तो उसमें क्या रुचि है । तो जिसको अनेक बार जाना हो उस बीज की उपेक्षा हो जाती है । इस तरह की उपेक्षा करके कोई दाल चावल खाता है क्या ? अजी इसे कल समझ लिया था, वैसा ही स्वाद है । तो जो उपभोग के समागम मिलते उनमें ही यह मोही जीव अपूर्वता का अनुभव करता है । तो यों ही समझिये कि धन मिला घर मिला, समागम मिला उसे ही यह मोही जीव अपूर्व मान लेता है । इसी भ्रम के कारण संसार में चतुर्गति में भ्रमण करता है । यदि यह इन समागमों को यों निरखे कि ये तो अनंत बार पाये, ऐसे वैभव, घर संपदा इज्जत प्रतिष्ठा ये तो अनेकों बार मिले और उससे कुछ सिद्धि न हो सकी, उनसे कुछ लाभ न मिला, उल्टा संसार में रुलते रहे । पर, जैसे कहते हैं ना कि पंचों की आज्ञा शिर माथे, पर पनाला तो यहीं से निकलेगा ऐसे ही इन शास्त्रों की बात शिरमाथे पर भीतर के उस अंधकार की बात वैसी ही रहेगी, उसमें कुछ फर्क न डालेंगे । सुन लेंगे सब, कुंदकुंदाचार्यदेव क्या कहते हैं, शुभचंद्राचार्यदेव क्या कहते हैं, सबकी सुन रहे हैं पर जो घर मिला है यह ही तो हमारा ठाठ है, जो दो चार जीव घर उत्पन्न हुए हैं ये ही तो मेरे सब कुछ हैं, इनके अतिरिक्त सब गैर हैं, इस बुद्धि में अंतर न देंगे । चाहे उन स्वजनों के कारण अनेक विपदायें पायी हैं और अनेक गालियाँ भी सुन लेते हैं लेकिन भ्रम की, बात जब तक दूर नहीं होती तब तक आत्मा में बल प्रकट नहीं होता जिससे शांति का अनुभव कर सकें । तो ये पापोदय वाले संसारी जीव दुर्निवार कर्मविपाक के वश होकर संसाररूपी बन में निरंतर भ्रमण करते हैं ।