वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 400
From जैनकोष
किंतु तिर्यग्गतावेव स्थावरा विकलेंद्रिया: ।असंज्ञिनश्च नान्यत्र प्रभवंत्यिंगिन: क्वचित् ॥400॥
लोक स्थावरों से असीम पूरितता – संसारी जीव की गतियाँ 4 प्रकार की हैं, उन गतियों में सबसे कम जीव हैं मनुष्यगति में, उससे अधिक जीव हैं नरकगति में, उससे अधिक जीव हैं देवगति में और सबसे अधिक जीव हैं तिर्यंचगति में । तिर्यंचगति में भी 5 प्रकार के जीव हैं – एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय । इनमें सबसे अधिक जीव हैं एकेंद्रिय । एकेंद्रिय में भी 5 भेद हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति । इनमें भी सर्वाधिक जीव हैं वनस्पतिकाय में । वनस्पतिकाय के दो भेद हैं – प्रत्येकवनस्पति और साधारणवनस्पति । सबसे अधिक जीव हैं साधारणवनस्पति । साधारणवनस्पति में इतने जीव हैं कि जितने आज तक अनादि से सिद्ध होते आये हैं वे सब सिद्ध महाजरा उनके अनंतवें भाग प्रमाण हैं और अबसे अनंतकाल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी भविष्य में जितने सिद्ध होंगे वे भी उस समय के रहे हुए साधारणवनस्पति जीवों के असंख्यातवें भाग प्रमाण रहेंगे । एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय तथा असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव ये सब तिर्यंच ही होते हैं, इनकी और गति नहीं होती । तो सारा लोक तिर्यंचों से भरा है । कभी-कभी कोई नास्तिक मनुष्य कहने लगते हैं कि अगर सभी त्यागी बन जायें, ब्रह्मचारी बन जायें तो फिर यह संसार कैसे चलेगा ? अरे संसार की पूर्ति मनुष्यों से नहीं होती, संसार की पूर्ति तो एकेंद्रियों से हो रही है । मनुष्य हैं कितने ? और फिर मनुष्य ही क्या, यदि समस्त अनंत जीव ब्रह्मचारी हो जायें और मुक्त हो जायें तो अच्छा ही हुआ । तुम्हें क्या फिकर पड़ गयी ? तो यह सारा संसार एकेंद्रिय जीवों से भरा पड़ा है ।