ज्ञानार्णव - श्लोक 401: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
उपसंहारविस्तारधर्मा दृग्बोधलांछन: ।कर्ताभोक्ता स्वयं जीवस्तनुमात्रोऽप्यमूर्तिमान् ॥401॥
जीवविस्तार की देहप्रमाणता – यह जीव संकोच विस्तार धर्म को लिए हुए है इस कारण यह जीव जिस शरीर को ग्रहण करता है तब उस शरीर के प्रमाण हो जाता है । जैसे यहाँ जब बालक है छोटा तो शायद एक सवा फुट का होता होगा, और बढ़ते बढ़ते हो जाता है सवा पाँच फुट तो सवा पाँच फुट शरीर के आकार जीव के प्रदेश हो गए । सवा पाँच फुट के प्रमाण विस्तृत हो गया है । इतना बड़ा मनुष्य मरकर यदि चींटी के शरीर में उत्पन्न हो तो वहाँ शरीरग्रहण के स्थान में पहुँचते ही चींटी के बराबर जीव का आकार रह जाता है, और वही चींटी मरकर हाथी के शरीर में जन्म ले तो हाथी के शरीर के स्थान पर पहुँचकर वहाँ उसके प्रमाण शरीर हो जाता है । तो इसमें संकोच विस्तार का स्वभाव पड़ा है । इसके लिए दृष्टांत यों दिया गया कि जैसे दिया का संकोच विस्तार का स्वभाव है । दीपक छोटे कमरे में रख दो तो उतने में उसका प्रकाश फैलेगा, एक डबला में रख दो तो उतने में प्रकाश फैलेगा, बड़े कमरे में रख दो तो उतने में प्रकाश जायेगा । ऐसे ही यह आत्मा जितने शरीर में पहुँचेगा उतने शरीर प्रमाण आत्मा फैल जायगा । यह दृष्टांत एक स्थूल दृष्टांत है । वस्तुत: दीपक तो हर जगह जितना है उतना ही रहता है । दीपक का निमित्त पाकर जितने समक्ष वहाँ पदार्थ रहते हों वे पदार्थ अंधकार अवस्था को त्यागकर प्रकाश अवस्था में आते हैं । यह दीपक का प्रकाश विस्तृत हो; संकुचित हो यह बात नहीं है, दीपक तो जितना बड़ा है, जितनी लौ है वह उतने में ही प्रकाशमान है और वही उसका स्वरूप है । लेकिन यह दृष्टांत लोक व्यवहार में रुढ़ है और उसका यह भेद का मर्म बड़ी कठिनता से जानने में आता है । इसलिए यह दृष्टांत ठीक बैठता है कि जितनी जगह दीपक पाये उतने में प्रकाश फैले । ऐसे ही जितना शरीर पाये जीव उतने में ही फैल जाता है ।आत्मा की दृग्बोधलांछनता – यह आत्मा शुद्ध ज्ञान सहित है, स्वयं कर्ता है, स्वयं भोक्ता है और शरीरप्रमाण होकर भी यह अमूर्त है । आत्मा रूप रस गंध स्पर्श पिंड यह कुछ नहीं है । आकाशवत् अमूर्त है । किंतु, आकाश में जो आकाश का असाधारण लक्षण है वह उसमें है और आत्मा का जो असाधारण लक्षण है वह आत्मा में है । यों यह आत्मा अमूर्त है स्वयं अपने परिणमन का कर्ता है और स्वयं अपने परिणमन का भोक्ता है और संकोच विस्तार धर्म को लिए हुए है । यों असमानजातीय द्रव्यपर्याय का भी समाधान इस श्लोक में आया है और असाधारण लक्षण क्या है यह दर्शन ज्ञानमय है यह भी बताया है । और, कर्ता कैसे है भोक्ता कैसे है और कितना बड़ा है, जीव कैसा है, इन सब प्रश्नो का उत्तर इस श्लोक में कहा गया है । जितनी देर में इस आत्मा का ज्ञान किया जाता है और इस ज्ञान में जो कुछ जान लिया जाता है उसके वर्णन को घंटों चाहिए । किसी भी वस्तु के जानने में एक सेकेंड का भी विलंब नहीं लगता, आँखे खुली लो सारा सामने का दृश्य जानने में आ गया । कोई पूछे कि जरा बतावो तो सही कि इसे देखकर क्या जाना ? तो उसे बताने में बहुत विलंब लगेगा । यों ही आत्मा की यथार्थ झांकी यथार्थदर्शन आत्मा में क्षणमात्र में होता है । उसके बताने के लिए बहुत समय चाहिए । और सारी जिंदगीभर बताते रहें तो इतना समय तक भी लग सकता है, किंतु झलक तो क्षणमात्र में इस समग्र आत्मा की हो सकती है । ऐसे इस आत्मा में दर्शन ज्ञान का स्वभाव पाया जाता है ।