ज्ञानार्णव - श्लोक 408: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
यथा धातोर्मलै: सार्धं संबंधोऽनादिसंभव: ।तथा कर्ममलैर्ज्ञेय: संश्लेषोऽनादिदेहिनाम् ॥408॥
धातु का मल के साथ समान देहियों का कर्ममल के साथ अनादि से संश्लेष – जैसे धातु का मल के साथ अनादि से संबंध है इसी तरह देही का कर्ममल के साथ अनादिकाल से संश्लेष है । ताँबा,सोना, चाँदी ये धातुवें ऐसी खानों से बनायी जाती हैं कि जो देखने में चाँदी, सोना, ताँबा जैसी न लगें, लोहा जैसी न लगें, एक मिट्टी सोना लगती है । पारखी परख लेते हैं और जानते हैं कि इस मिट्टी में सोना है, कोई मन भर मिट्टी में एक दो मासा सोना निकालता होगा पर उस पूरी मिट्टी में वह स्वर्णत्व मौजूद है । तो जैसे उस स्वर्णत्व में किट्टकालिमा मिट्टी का संबंध शुरू से है, ऐसा तो न था कि पहिले स्वर्णत्व बिल्कुल शुद्धरूप में था और पीछे यह मिट्टी बना, किंतु शुरू से ऐसे ही यह मिट्टी है । इसको साफ किया जाता है विधिपूर्वक तो उनमें से स्वर्णत्व प्रकट होता है । तो जैसे धातु का मल का संबंध प्रारंभ से है, उपायों के द्वारा वह मल दूर हो जाता है और शुद्ध धातु प्रकट होती है ऐसे ही जीव का कर्ममल के साथ अनादिकाल से संबंध है, लेकिन आत्मदर्शन, आत्मध्यान आत्मा को ही शरण मानकर अपने उपयोग को इस भगवान आत्मा को ही समर्पित कर देना इन सब उपायों से कर्ममल दूर हो जाते हैं और कैवल्य प्रकट हो जाता है । इस काम के लिए बड़ी तीव्र धुन चाहिए । ऐसी धुन हो कि जिस धुन में रमने वाले पुरुष को बाह्य लोगों के प्रवर्तन से क्षोभ न उत्पन्न हो और कहीं बाह्य पदार्थों में अपने हित अहित की धारणा हो । एक अपनी अंत: धुन में लगा रहे, कैवल्यस्वरूप की भावना बनाये रहे, केवल ज्ञानपुंज हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, आकाशवत् निर्लेप हूँ, इस मुझको पहिचानने वाला कौन है ? यह मैं स्वयं परिपूर्ण हूँ, अधूरा नहीं हूँ, स्वत: सिद्ध हूँ और अमर हूँ । ऐसी दृष्टि न होने से इस जीव को शांतिलाभ होता है, चाहे बाह्य में इसके बहुत उपद्रव रहते हों ।
अध्यात्मदर्शन से विह्वलता का विनाश – अध्यात्म दिशा और व्यवहार दिशा में बहुत अंतर वाली परिस्थितियाँ होती हैं । बड़ी-बड़ी अवस्थाएँ बनायें तो सही, लेकिन किन्हीं बातों में सफल असफल होने से या जैसी व्यवस्था चाहते हैं वैसी व्यवस्था न बनने से अंतरंग में विह्वल न होना चाहिए और वह विह्वलता न हो इसका उपाय है अध्यात्मदर्शन । जैसे एक देश के संबंध में चिंताएँ चलती हैं, किसी अन्य का इस पर शासन न हो, देश स्वतंत्र रहे, अपने देश का विस्तार गौरव चाहते हैं, व्यवहारदृष्टि में ये सब बातें युक्त हैं और ऐसा देखने के लिए यह मनुष्य लालायित रहता है, किंतु कुछ अध्यात्म में चलकर अपना अनुभव करे, उसके बाद फिर तो ऐसा जंचेगा कि क्या परतत्त्वों के लिए कल्पनाएँ की ? क्या मेरा है यहाँ ? न मेरा देश है, न मेरी जाति है, न कुल है, न देह है, न परिवार है, न वैभव है और आज जिसे हम विदेश समझते हैं मरकर वहीं जन्म लें तब फिर इस देश को विदेश समझने लगेंगे । तो दोनों की दिशायें जुदी-जुदी हैं, और फिर किसी कर्मयोगी पुरुष में इन दोनों दिशावों का भी अपनी-अपनी सीमा में मिश्रण रहता है ।मूल आशय में बिगाड़ न आने देने का संधारणा – भैया ! हो कुछ भी किंतु अपने मूल आशय में बिगाड़ न आना चाहिए । यह जगत मायारूप है, इसमें मेरा स्वरूप न्यारा है, मैं आकाशवत् निर्लेप चैतन्यमात्र हूँ, ऐसी प्रतीति में बाधा न आये और ऐसे निर्णय में फर्क न आये तो जीवन हितकारी है । सब भ्रम का ही खेल है । भ्रम में ही रहकर यथा तथा विषयसाधनों में रमकर जिंदगी व्यतीत किया, मरकर फिर कहीं जन्म लिया । ऐसा ही जन्म संस्करण अज्ञानी जीवों के रहा करता है । यह सब उपाधि के संबंध से हो रहा है । और यह उपाधि अनादि परंपरा से लगी है । ध्यान का वर्णन करने वाले इस ग्रंथ में ध्यान के मुख्य अंगों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा है, उसमें से सम्यग्दर्शन का यह वर्णन है । तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान् करना सम्यग्दर्शन है । तो माया तत्त्व और कैसे विभाव बना, क्या स्वभाव है, इन सबका निर्णय हो तभी वहाँ समीचीन आशय बन सकता है । तो कर्ममल का संबंध अनादिकाल से है । तो क्या यह छूट नहीं सकता ? इसके उत्तर में अगला श्लोक कह रहे हैं ।