ज्ञानार्णव - श्लोक 40: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भवभ्रमण विभ्रांते मोहनिद्रास्तचेतने।
एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहर्निशम्।।40।।
योगी का जागरण―ये संसार प्राणी बड़ी तेजी से बड़ी कठिन-कठिन कुयोनियों में, संकटों में भ्रमण करने से विभ्रांत हुए हैं और इस विभ्रांति व इस थकान के कारण मोहरूपी निद्रा उनके तीव्र आ गई है जिससे उनकी चेतना नष्ट हुई है, ऐसे इस जगत् में इन योगिराजों के, जगत् के समस्त वैभवों से अतिविरक्तों के केवल एक अपने ज्ञातृत्व स्वरूप के ही अनुभव में निरंतर उत्सुकता जागृत रहती है। जैसे जब लोग निरंतर भ्रमण करने से खेदखिन्न हो जाते हैं तथा शरीर खेदखिन्न हो गया तो उससे बड़ी तेज निद्रा आती है। उस तेज निद्रा में यह जीव अपने आपको भूल जाता है, ऐसे ही ये जगत् के प्राणी बहुत परिभ्रमण करने से खेदखिन्न हो गये हैं और इसी खिन्नता में मोह की तेज नींद बराबर चली आ रही है, इनकी चेतना नष्ट हो गई है, ऐसा तो यह जगत् है, किंतु इस जगत् में अभी भी ऐसे मुनिराज विराजमान हैं कि जो इस जगत् में रहकर बराबर जागरूक हैं, सावधान हैं।